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बौद्ध और वैविक आचार-नियमों की समता
से कहा कि 'द द द स्वर, जो गरजते हुए बादलों से उत्पन्न होता है, देवों को दम (आत्म-संयम) की आवश्यकता बताता है; असुरों को क्या एवं मनुष्यों को दान बताता है। गौतम (८१२४-२५) ने आत्मा के आठ गुणों की चर्चा की है, जिनमें पहला है सब प्राणियों के प्रति दया; उनका कथन है कि वह व्यक्ति, जिसने ४० संस्कार कर लिये हैं, किन्तु यदि उसने आठ गुण नहीं प्राप्त किये हैं, ब्रह्म में समाहित नहीं हो सकता। आदिपर्व में आया है, 'अहिंसा सभी प्राणियों के लिए परम धर्म है, अतः ब्राह्मण को चाहिए कि वह किसी को भी कोई कष्ट न दे।' 'अहिंसा परमो धर्मः' कई बार महाभारत में आया है (यथा--द्रोणपर्व १९२।३८, शान्ति० २६५।६, ३२९।१८, अनुशासन० ११५।२५, ११६।३८, आश्वमेधिकपर्व २८।१६-१८, ४३।२१)। शान्तिपर्व (२९६।२२-२४) में सभी लोगों के लिए १३ गुणों का वर्णन है, जिनमें प्रथम दो हैं क्रूरता से दूर रहना एवं अहिंसा।। वसिष्ठ (४।४), मनु (१०।६३) एवं याज्ञ० (१२१२२) ने सभी वर्गों के लोगों के लिए कुछ गुणों को आवश्यक माना है।
पुराणों ने भी अहिंसा पर बहुत बल दिया है। कुछ उदाहरण यहाँ दिये जा रहे हैं।५५ वामनपुराण में आया है-'अहिंसा, सत्य, अस्तेय, दान, क्षान्ति (सहन शक्ति या सहिष्णुता), दम (आत्म-संयम), शम (इन्द्रिय-निश्चलता या शान्ति), अकार्पण्य, शौच (पवित्रता), तप-यही दशांग धर्म है जो सभी वर्गों के लिए है।' पद्म में आया है कि प्राणिहिंसा करने वाले वेदाध्ययन, दान, तप एवं यज्ञों से स्वर्ग की प्राप्ति नहीं करते ; अहिंसा सर्वोत्तम धर्म, सर्वोत्तम तप एवं सर्वोत्तम दान है--यही मुनियों का कहना है; जो लोग दयालु हैं वे मच्छरों, रेंगने वाले प्राणियों (साँप
५३. वया सर्वभूतेष, शान्तिरनसूया शौचमनायासो मंगलमकार्पण्यमस्पृहेति । यस्यते चत्वारिंशत्संस्करा न चाष्टावात्मगुणा न स ब्रह्मणः सायुज्यं सलोकतां गच्छति । गौ० ५० सू० (८१२४-२५)। मत्स्य (५२१८-११) ने भी गौतम द्वारा प्रकाशित आठ गुणों की चर्चा की है। और देखिए मार्कण्डेय (२५।३२-३३)।
५४. अहिंसा परमो धर्मः सर्वप्राणभृतांवर। तस्मात्प्राणभृतः सर्वान्न हिस्याद् ब्राह्मणः क्वचित् ॥ आदि० २०१३-१४; अहिंसा सर्वभूतेषु धर्म ज्यायस्तर विदुः। द्रोण० १९२१३८; अहिंसा सर्वभूतेषु धर्मेभ्यो ज्यायसी मता। शान्ति० २६५।६; न हिंस्यात्सर्वभूतानि मैत्रायणगतश्चरेत् । शान्ति० ३२९।१८, अहिंसा परमो धर्मस्तयाहिंसा परं तपः। अहिंसा परमं सत्यं यतो धर्मः प्रवर्तते ॥ अनुशासन० ११५।२५; हिंसा परमो धर्मो हिंसा चाधर्मलक्षणा। आश्वमेधिक० ४३।२१।
५५. अहिंसा सत्यमस्तेयं दानं शान्तिर्वमः शमः। अकार्पण्यं च शौचं च तपश्च रजनीचर। दशांगो राक्षसश्रेष्ठ धर्मोऽसौ सार्वणिकः ॥ वामन १४।१-२; न वेदैर्न च दानश्च न तपोभिन चाध्वरैः। कचित् स्वर्गति यान्ति पुरुषाः प्राणिहिंसकाः॥ अहिंसा परमो धर्मो हिंसव परं तपः। अहिंसा परमं दानमित्याहुर्मुनयः सदा ॥ मशकान् सरीसृपान् वंशान्यूकाद्यान्मानवांस्तया। आत्मौपम्येन पश्यन्ति मानवा ये दयालवः॥ पद्म १२३०२६-२८; ये श्लोक पद्मपुराण ६।२४३॥६९-७१ में दुहराये गये हैं। तस्मान्न हिसायनं च प्रशंसन्ति महर्षयः। उञ्छो मूलं फलं शाकमुदपात्रं तपोधनाः। एतद् वस्या विभवतः स्वर्गलोके प्रतिष्ठिताः॥ अद्रोहश्चाप्यलोभश्च दमो भूतदया शमः । ब्रह्मचर्य तपः शौचमनुक्रोश (शः ? ) क्षमा धृतिः। सनातनस्य धर्मस्य मूलमेतद् दुरासदम् ॥ मत्स्य १४३३३०-३२; ब्रह्माण्ड २॥३१॥ ३६-३८ में वही है जो मत्स्य १४३॥३०-३२ है। 'उच्छो मूलं फलं...मूलमेतत्सनातनम्' आश्वमेधिकपर्व ९१३३२-३४ में भी है। सनातनधर्म शब्द के लिए देखिए माषववर्मा का खानपुर पत्रक (एपि० इण्डिका, जिल्द २७, पृ० ३१२): 'श्रुतिस्मृतिविहितसनातनधर्मकर्मनिरताय', प्रो० वी० वी० मिरांशी द्वारा सम्पादित, इन्होंने इस लेख को ६ठी शताब्दी का माना है।
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