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धर्मशास्त्र का इतिहास करता है--इन चारों का पतन होता है और पाँचवाँ वह (पतित होता) है जो इन चारों का साथ करता है। यह हम आगे देखेंगे कि अहिंसा पर उपनिषदों में भी किस प्रकार बल दिया गया है। इस प्रकार हम देखते हैं कि अहिंसा, अस्तेय (चोरी न करना), यौन शुचिता (ब्रह्मचर्य), सत्यता किस प्रकार अत्यन्त प्राचीन उपनिषदों में भी बलपूर्वक व्याख्यायित थे। परिव्राजक को सम्पूर्ण सम्पत्ति छोड़ देनी पड़ती थी और अपनी जीविका के लिए भिक्षा मांगनी पड़ती थी (देखिए बृहदारण्यकोपनिषद् ३।५।१ एवं ४।४।२२, जाबालोपनिषद् ५, गौतम ३।१०-१३, वसिष्ठ १०)।" अन्य पाँच अनुशासन, यथा सोना एवं चाँदी को ग्रहण न करना, अंजनों एवं आभूषणों, पुष्पों, नृत्यों, गानों आदि के परित्याग की बात गौतम (२।१९ एवं ३।४), वसिष्ठ (१०१६) आदि में है जो वैदिक छात्रों एवं परिव्राजकों के लिए अनुशासित हैं। देखिए एच० कर्न (मैनुअल आव इण्डियन बुद्धिज्म, गुण्ड्रिस, पृ० ७०) जिन्होंने कहा है कि साधुओं (भिक्षुओं) की श्रेष्ठ नैतिकता केवल वही है जो चौथे आश्रम में द्विज के जीवन-नियम में, जब वह यति हो जाता है, देखी जाती है और इस विषय में सारी बातें धर्मसूत्रों एवं धर्मशास्त्रों से ली गयी हैं।
अहिंसा महाभारत एवं पुराणों ने अहिंसा पर बड़ा बल दिया है। यही बात उपनिषदों में भी है। छान्दोग्य ने कई बार चर्चा की है--५२३।१७।४ में आया है कि तप, दान, आर्जव, अहिंसा एवं सत्य वचन ही (बिना किसी उत्सव आदि के यज्ञ की) दक्षिणा है। इस बात की चर्चा करते हुए कि वह व्यक्ति जो आत्मा का सत्य ज्ञान प्राप्त कर लेता है, इस संसार में लौटकर नहीं आता, छान्दोग्योपनिषद् ने कहा है, 'वह तीर्थों (यज्ञों) के अतिरिक्त कहीं भी किसी जीव को कष्ट नहीं देता।' बृहदारण्यकोपनिषद् (५।२) का कथन है कि किस प्रकार प्रजापति ने देवों, असुरों एवं मानवों
४९. तदेष श्लोकः । स्तेनो हिरण्यस्य सुरां पिबंश्च गुरोस्तल्पमावसन् ब्रह्महा चैते पतन्ति चत्वारः पञ्चमश्चाचरंस्तैरिति । छा० उप० ५।१०।९।।
५०. एतं वै तमात्मानं विदित्वा ब्राह्मणाः पुत्रैषणायाश्च वित्तषणायाश्च लोकषणायाश्च व्युत्थायाथ भिक्षाचयं चरन्ति । बृह० उप० ३१५१ (आत्मा के ज्ञान की प्राप्ति के उपरान्त ब्रह्मिण लोग पुत्रैषणा, वित्तषणा एवं लोकषणा से दूर हट जाते हैं और भिक्षुक की भाँति भ्रमण करते हैं)। अथ परिवाड् विवर्णवासा मुण्डोऽपरिग्रहः शुचिरद्रोही भक्षणो ब्रह्मभूयाय भवतीति । जाबालोप० ५, शंकराचार्य द्वारा वेदान्तसूत्र ३११३ एवं ३।४।२० पर उद्धृत।
५१. वर्जयेन्मधुमांसगन्धमाल्य-दिवास्वप्नाभ्यंजनदानोपानच्छा-काम-क्रोध-लोभमोह-वाद्यवादन-स्नान-दन्तधावननृत्यगीत-परिवाद-भयानि ॥ गौ० २।१९; मुण्डोऽममोऽपरिग्रहः । वसिष्ठ १०१६ । पुरोहितों के अन्य शीलों के लिए मिलाइए गौतम (२।१९) एवं दीग्धनिकाय (भाग १, पृ०६४ सामाञ्ना-फल-सुत्त ११४५): 'विरतो विकालभोजना। नच्च-गीत-वादित-विसूकदस्सना पटिविरतो होति। माला-गन्ध-विलेपन-धारण-मण्डण-विभूसण त्थाणा पटिविरतो होति । उच्चासयन-महासयना पटिविरतो होति। जातरूप-रजतपटिग्गहणा पटिविरतो होति । आमक-मंसपटिग्गहणा पटिविरतो होति।'
५२. अथ यत्तपो दानमार्जवहिंसा सत्यवचनमिति ता अस्य दक्षिणाः। छा० उप० ३।१७।४; आचार्यकुलाद् वेदमधीत्या. . . स्वाध्यायमधीयानो धार्मिकान्विदधदात्मनि सर्वेन्द्रियाणि संप्रतिष्ठाप्याहिंसन् सर्वभूतान्यन्यत्र तीर्थेभ्यः... न च पुनरावर्तते। छा० उप० ८.१५; तदेतत्त्रयं शिक्षेद् दमं दानं दयामिति । बृह० उप० ५।२।
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