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ata धर्म के अनुशासन एवं वैदिक यम-नियम
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बुद्ध ने वाराणसी के सारनाथ नामक स्थान पर जो शिक्षा दी उससे बोधिसत्त्वों के सिद्धान्त का मेल नहीं बैठता ! हीनयान एवं महायान के आदर्शो में अन्तर है। मौलिक शिक्षा व्यक्ति प्रयास, नैतिक विकास, दुःख तथा इच्छाओं या कामनाओं तथा स्वयं जीवन की लालसा के दूरीकरण पर निर्भर है । 'क्या मैं गत युगों में जीवित था या नहीं ?' ऐसे प्रश्नों पर विचार करने को बुद्ध समय नष्ट करना समझते थे। इसी प्रकार, 'क्या मैं भविष्य में रहूँगा? क्या मेरा अस्तित्व है या नहीं है ?' प्रश्न भी बुद्ध के लिए व्यर्थ थे। सब्बासवसुत ( ९ - १३ ) में आया है कि अष्टांगिक मार्ग से चलता हुआ विज्ञ पुरुष जानता है कि किन विषयों पर विचार करना और किन विषयों पर नहीं । देखिए, सेक्रेड बुक आव दि ईस्ट (जिल्द ११, पृ० २९८-३०० ) । बौद्धधर्म ने एशिया के अर्ध भाग पर जो अपना प्रभाव डाला वह निर्वाण पाने का वचन देकर नहीं, प्रत्युत अपनी उस शिक्षा द्वारा, जिनमें अधिक सुलभ वेदनता ( हार्दिक अनुभवशीलता ), सक्रिय दाक्षिण्य, ( उदारता ), अच्छाई, मधुरता एवं सज्जनता आदि के गुण विद्यमान थे । महायान ने सेवा भावना एवं भक्ति पर अधिक बल दिया । हीनयान एवं महायान दोनों की शिक्षा अपनेअपने ढंग से आकर्षक थी ।
बौद्धधर्म ने पंच शीलों पर बल दिया है जो सभी बौद्धों के लिए अनिवार्य थे । यथा - " किसी प्रकार का आघात एवं जीव-नाश न करना; चोरी न करना; काम-सम्बन्धी अपवित्रता से दूर रहना; झूठ से दूर रहना तथा उन्मत करने वाले पेय पदार्थों से दूर रहना ।" इन पंच शीलों में पाँच अन्य अनुशासन या उपदेश जोड़ दिये गये । ( दोनों मिलकर दश- शिक्षापद कहे जाते हैं), जो बौद्ध उपासकों के लिए आवश्यक थे, यथा- " वर्जित काल में भोजन न करना; नृत्य, संगीत, तमाशा आदि सांसारिक मनोरंजनों से दूर रहना; अंजनों एवं आभूषणों का प्रयोग न करना; लम्बे-चौड़े एवं अलंकृत पलंगों या खाटों को व्यवहार में न लाना तथा सोना-चांदी न ग्रहण करना ।" ये शील प्राचीन उपनिषदों एवं धर्मसूत्रों से ग्रहण किये गये हैं। छान्दोग्योपनिषद् (५।११।५ ) में आया है कि केकय के राजा अश्वपति को इसका गर्व था कि उसके राज्य में न तो कोई चोर था, न कोई कदर्य (कृपण) एवं मद्य पान करने वाला था, कोई ऐसा व्यक्ति नहीं था जिसके घर में अग्निवेदिका न हो ( अर्थात् सभी आहिताग्नि थे अर्थात् यज्ञ करने वाले थे ), कोई अविद्वान् नहीं था, कोई स्वैरी (व्यभिचार करने वाला) नहीं था, स्वैरिणी ( व्यभिचारिणी नारी की तो बात ही नहीं थी ।" इसी उपनिषद् ने एक प्राचीन श्लोक उद्धृत किया है- 'जो सोने की चोरी करता है, जो सुरा पीता है, जो गुरु शैय्या को अपवित्र करता है (पूज्य स्त्रियों के साथ गमन करता है), जो ब्रह्महत्या
सकता, वह इस जीवन में नहीं प्राप्त किया जा सकता, प्रत्युत शक्तियों एवं युगों तक अच्छे कर्मों, सेवा कार्यों तथा सद्व्यवहारों के फलस्वरूप ही प्राप्त हो सकता है।
कुछ लोगों के मत के अनुसार मन्त्रयान एवं वज्रयान नामक सम्प्रदाय महायान की शाखाएं कहे जाते हैं। वयान के विषय में हम अगले अध्याय में सविस्तार पढ़ेंगे। श्री राहुल सांकृत्यायन के अनुसार वज्रयान (७००१२०० ई०) महायान (४००-७०० ई०) का पर्यायवाची है; वह केवल उसका उत्तरकालीन विकास है (देखिए ०२११, जे० ए०, जिल्व २२५, १९३४ में प्रकाशित 'एल् आरजिने दु वज्रयान एटलेस ८४ सिद्धज' ) ।
४७. देखिए खुद्दक पाठ ३, दीघनिकाय (२।४३, १०६३) एवं श्री कर्न कृत 'मैनुअल आव इण्डियन बुद्धिज्म', पृ०७०, जहाँ पंचशील पर विवेचन उपस्थित किया गया है।
४८. सह प्रातः संजिहान उवाच 'न मे स्लेनो जनपदे न कबर्यो न मद्यपो नानाहिताग्निर्नाविद्वान स्वैरी स्वैरिणी कुतः ।' छा० उप० (५।१११५ ) ।
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