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________________ - ४४८ धर्मशास्त्र का इतिहास सम्पूर्ण मानवता के लिए कृपालु होकर ४५ वर्षों तक लोगों में उपदेश किया कि वे निर्माण की प्राप्ति करें, अत बौद्धों को अकेले अपनी मुक्ति (छुटकारा) की चिन्ता न कर कृपालु हो अन्य लोगों के छुटकारे की बात सोचन चाहिए और ऐसा करने में बार-बार जन्म लेने को सन्नद्ध रहना चाहिए, अपने निर्वाण की चिन्ता नहीं करनी चाहिा और न संसार से ही डरना चाहिए। जिन लोगों ने इस नवीन दृष्टिकोण को अपनाया उन्होंने बुद्ध को देवत्व का रूप दिया और कहा कि सिद्धार्थ को कई बार जन्म लेकर सेवा करने, लोगों की सहायता करने आदि से बुद्धत्व प्राप् हुआ और यह आचरण-मार्ग उत्तम है (महायान, बड़ा यान या वाहन या विधि या ढंग) तथा व्यक्तिगत मुक्ति क मार्ग व्यक्ति मात्र तक सीमित है, अर्थात् स्वार्थपूर्ण है (जो हीनयान, हीन वाहन या ढंग या विधि) के नाम से प्रसिद्ध हुआ। यह दृष्टिकोण जो महायान के नाम से प्रचारित हुआ, बड़ा आकर्षक सिद्ध हुआ और एशिया के अधिकांश देश . ने. इसे ही अपनाया। ४६. बौद्धधर्म पर अनेक ग्रन्थ हैं। 'महायान' के लिए देखिए डब्लू० एम० मैकगोवर्न कृत 'ऐन इण्ट्रोडक्शन टु महायान बुद्धिज्म' (लंदन, १९२२); डा० एम० एन० क्त कृत 'ऐस्पेक्ट्स आव महायान बुद्धिज्म (१९३०); .: डा०हरदयाल कृत 'बोषिसत्त्व शक्टिन इन संस्कृत लिटरेचर' (केगन पाल, लंदन, १९३२); प्रो० केनेथ उब्लू० .....मार्गम द्वारा सम्पादित एवं बहुत-से देशों के लेखकों द्वारा लिखित (हीनयान एवं महायान दोनों पर) 'दि पाथ आव दि बुद्ध', (न्यूयार्क, १९५६)। .... जो लोग बौखधर्म के विषय में सामान्य रूप से एवं हीनयान तथा महायान के विषय में विशेष जानकारी ... ग्रहण करना चाहते हैं उनके लिए कुछ अन्य प्रकाशनों की चर्चा यहाँ की जा रही है। वे लोग देखें--धेरी स्टेटस्की कृत 'सेण्ट्रल कांसेप्शन आव बुद्धिज्म' (लंदन, १९२३), 'दि कांसेप्शन आव निर्वाण' (लेनिनग्राड, १९२७), 'बुद्धिस्ट लाजिक', जिल्द १ (१९५८); जे० जी० जेनिस कृत 'वेदान्तिक बुद्धिज्म आव वि बुद्ध' (आक्सफोर्ड यूनि० प्रेस, १९४८); एडमण्ड होमस कृत 'क्रीड आव युद्ध (पाँचवाँ संस्करण); ग० शशिभूषण दासगुप्त कृत 'इण्ट्रोडक्शन टु तान्त्रिक बुद्धिज्म' (कलकत्ता यूनि०, १९५०); हूज आई० फासेट कृत 'दी फ्लेम एण्ड दि लाइट' (लंदन एवं न्यूयार्क, १९५८); डा० बी० आर० अम्बेडकर कृत 'विबुद्ध एण्ड हिज धम्म' (१९५७); प्रो० एफ० मसूतानी कृत 'कम्परेटिव स्टडी भाव विज्म एण्ड क्रिश्चियानिटी' (टोकियो, १९५७)। असंग-कृत महायान-सूत्रालंकार (प्रो० सिलवा लेवी द्वारा सम्पादित) ने दो श्लोकों (१।९-१०) में दोनों सम्प्रदायों के अन्तरों (५ अन्तरों) को प्रकट किया है। डा० जे० तका कुसु द्वारा अनूदित इत्सिग का 'रेकर्ड्स आव वि बुद्धिस्ट रेलिजिन' (आक्सफोर्ड, १८९६), इसमें आश्चर्य की बात यह कही गयी है कि दोनों साम्प्रदायिक सिद्धान्त मूल धर्म से सर्वथा मिलते हैं। दोनों सत्य को समान रूप से - मामते हैं और हमें निर्वाण की ओर ले जाते हैं। बुद्ध ने आत्मा या ईश्वर की बात ही नहीं की (भले ही उन्होंने इनके ...: अस्तित्व को भावात्मक रूप से न माना हो), उन्होंने व्यक्ति के आत्मा एवं अमरता को स्वीकार नहीं किया। .." उन्होंने उपनिषद् की 'आनन्दो ब्रह्मेति व्यजानात्' नामक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण शिक्षा पर कोई बल नहीं दिया। उन्होंने निर्वाण को परम शान्ति की स्थिति कहा है, साधारण जीवन को दुःखात्मक माना है और बलपूर्वक प्रतिपादित किया है कि निर्वाण इस जीवन में भी प्राप्त किया जा सकता है। उन्होंने अपने को परमात्मा नहीं कहा, प्रत्युत मानव - कहा। महायान सिद्धान्तों के कई प्रकार हैं और परिभाषाओं में बड़ी विभिन्नता है। सामान्यतः यह कहा जा सकता - है कि वे ग्रन्थ जो महायान की शिक्षा देते हैं, व्यावहारिक रूप में मानव बुद्ध के आदर्श का त्याग करते हैं, बुद्ध एवं . भावी बुद्धों की पूजा की शिक्षा देते हैं और प्रतिपादन करते हैं कि निर्वाण प्राचीन विधि से नहीं प्राप्त किया जा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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