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बौवधर्म की प्रतियोगिता हीन थी। शूद्र के समक्ष वेद-पाठ वर्जित था, शूद्र यज्ञ नहीं कर सकते थे और उस काल में वे तीन उच्च वर्णों की सेवा करते थे। मनु (८१४१३) में शूद्रों की यही स्थिति थी, अर्थात् वे ब्राह्मणों की सेवा करने को परमात्मा द्वारा उत्पन्न किये गये थे। किन्तु यह स्थिति केवल आदर्श थी, या कार्यान्वित नहीं होती थी। ऐसा नहीं सोचना चाहिए कि सम्पूर्ण भारत बौद्ध हो गया था। लाखों प्राचीन हिन्दू धर्मावलम्बी थे। हाँ, इसका भय अवश्य था कि राज्याश्रय मिल जाने एवं सरल तथा आकर्षक उपदेशों के कारण बहुत-से लोग प्राचीन धर्म को छोड़ सकते थे।
जिन दिनों बौद्ध धर्म अपने उत्कर्ष की चोटी पर था, ब्राह्मणों को प्राचीन वैदिक धर्म के झण्डे को फहराते रखना था, इसके लिए एड़ी-चोटी का पसीना एक करना पड़ता था कि सामान्य जनता और यहाँ तक कि मानवान् लोग बौद्धधर्म के चंगुल से बचे रहें और प्राचीन धार्मिक मार्ग को न छोड़ें। स्वयं बौद्ध धर्म ने अपने बहुत-से आदर्शों एवं सिद्धान्तों में ईसा की प्रारम्भिक शतियों एवं उनके उपरान्त भी बड़े-बड़े परिवर्तन कर दिये थे। बुद्ध के आरम्भिक सिद्धान्त व्यक्ति के अपने (व्यक्तिगत) प्रयास एवं निर्वाण के लक्ष्य तक सीमित थे। आरम्भिक बौद्ध ग्रन्थों में आत्मा के अस्तित्व का अस्वीकरण घोषित था और परमात्मा के विषय में कोई विचार-विमर्श नहीं था।" यद्यपि बुद्ध ने निर्वाण के बारे में कहा, किन्तु उन्होंने उसकी परिभाषा नहीं की और न यही बताया कि निर्वाण-प्राप्ति के उपरान्त व्यक्ति की क्या स्थिति होती है। अश्वघोष ने निर्वाण की तुलना बुझी हुई ज्वाला से की है (सौन्दरनन्द, अध्याय १६।२८-२९) । बुद्ध के समय में कर्म-सिद्धान्त लोगों के मन में समाया हुआ था, अतः उन्होंने उसे ज्यों-का-त्यों अपना लिया, जो अबौद्धों को अनात्मा वाले बौद्ध सिद्धान्त के विपरीत लगता है। पम्म शब्द पालि 'धम्मपद' (यह शब्द 'मिलिन्द पन्हो' में प्रयुक्त हुआ है, अतः यह कृति ई० पू० दूसरी शती के पूर्व की है) में तीन अर्थों में प्रयुक्त हुआ है, यथा-(१) सत्य या कानून (नियम या व्यवहार) जो बुद्ध द्वारा उपदेशित हुआ, (२) वस्तु या रूप (आकार) तथा (३) जीवन का ढंग। ..
जैसा हमने ऊपर देख लिया है, बुद्ध द्वारा एवं उनके परिनिर्वाण के दो-एक शती बाद अनुयायियों द्वारा उपदेशित मौलिक बौद्धधर्म इस संसार के दुःखों से छुटकारा पाने या निर्वाण प्राप्त करने के लिए व्यक्तियों के समक्ष एक कठोर नैतिक आचरण मात्र था। अति आरम्भिक बौद्धधर्म की तीन केन्द्रीय मान्यताएं कीं, यथा-पर, धर्म एवं संघ नामक सीन रत्न या शरण, चार आर्य सत्य तथा अष्टांगिक मार्ग। धीरे-धीरे एक नया सिखास्त मी.प्रकट हुआ।" यह प्रचारित हुआ कि केवल अपने मोक्ष या निर्वाण के लिए प्रयत्न करमा मात्र स्वार्य है, स्वयं बुद्ध ने
४४. देखिए 'मिलिन्द पन्हों, सैकेड बुक आव दि ईस्ट, जिल्ब ३५, पृ० ८८-८९, जहाँ इस सिवात के विषय में कि आत्मा नहीं है, विवेचन उपस्थित किया गया है। पृ० ५२०, ७१-७७ पर कम्म (कर्म) नामक बोड सितम्स एवं उस सिद्धान्त पर, जो जन्मे हुए नाम-रूप (नाम एवं आकार) कहता है न कि आत्मा, विवेचन है। सोन्यानन्द (बिब्लियोपिका इणिका, १६।२८-२९) में आया है : 'वीपो यया निवृत्तिमभ्युपेतो नेवावनिं गच्छति मानसिताम् । दिशं न कांचितिविशं न कांचित् स्नेहमयात् केवलमेति शान्तिम् ॥ एवं कृती नितिमभ्युपेतो नैव...काचित् क्लेशभयात् केवलमेति शान्तिम् ॥
४५. श्री एच० कर्न ने अपने प्रम्य 'मैनुअल आव बुद्धिज्म (गुपित में, पृ० १२२) में कहा है कि बोडों का महापानवाद भगवद्गीता का ऋणी है। मिलाइए 'लभन्त ब्रह्मनिर्वाणमृषयः... सर्वभूतहिते रताः॥ ५॥२५, जो महायान सिवन्त से मिलता है।
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