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धर्मशास्त्र का इतिहास
अतः उन विद्वान् ब्राह्मणों ने, जो जन-समुदाय (जिसमें शूद्र भी थे) को बौद्ध चंगुल से छीन लेना चाहते थे, सहस्रों पौराणिक मन्त्रप्रणीत किये जिनका श्राद्धों, व्रतों आदि में प्रयोग होने लगा। इसी से प्रारम्भिक निबन्धकार ( यथा श्रीदत्त आदि ) शूद्रों द्वारा पौराणिक मन्त्रों के पाठ के लिए अनुमति देने को सन्नद्ध थे । किन्तु भारत में बौद्धों के अधःपतन के कई शतियों उपरान्त कमलाकर ( जिसने निर्णयसिन्धु का प्रणयन सन् १६१२ ई० में किया) जैसे कट्टर ब्राह्मण लेखकों ने कठोर रूप धारण कर लिया और शूद्रों के लिए प्रतिबन्ध लगा दिया कि वे किसी ब्राह्मण द्वारा पढ़े जाते हुए पुराण को श्रवण मात्र कर सकते हैं और स्वयं पौराणिक मन्त्र भी नहीं कह सकते। यह द्रष्टव्य है कि नरसिंहपुराण ने शूद्रों के कर्तव्यों की व्यवस्था करते हुए विधान किया है कि शूद्र ब्राह्मण द्वारा कथित पुराणों को सुन सकता है और नरसिंह (विष्णु के अवतार) की पूजा कर सकता है।
नारदीयपुराण (२।२४।१४ - २४ ) में श्रुति, स्मृति एवं पुराणों के प्रयोग के विषय में निम्नोक्त बात आयी है - " वेद कई रूपों में स्थित है । यज्ञकर्म की क्रिया ( में भी) वेद है; गृहस्थाश्रम में स्मृति वेद है; ये दोनों 'क्रियावेद' एवं 'स्मृतिवेद' पुराणों में प्रतिष्ठित हैं । जिस प्रकार यह अद्भुत संसार पुराण पुरुष ( परमात्मा ) से उत्पन्न हुआ, उसी प्रकार इसमें कोई संदेह नहीं है कि सारा साहित्य पुराणों से उत्पन्न हुआ । मैं पुराणार्थ ( पुराण के अर्थ या मन्तव्य ) को वेदार्थ से अधिक विस्तृत ( महत्त्वपूर्ण ) मानता हूँ। सभी वेद सदैव पुराणों पर स्थिर रहते हैं । वेद अल्पज्ञ से इसलिए डरता रहता है कि वह उसे (वेद को ) हानि पहुँचा देगा । वेद में न तो ग्रहसंचार ( ग्रहों की गतियाँ) हैं,
( धार्मिक कृत्यों के लिए) उचित कालों को बताने वाली शुद्ध गणनाएँ हैं, न तिथिवृद्धि या तिथिक्षय पर कोई विचार है और न ( उसमें ) पर्वों ( अमावस्या, पूर्णिमा आदि), ग्रहों आदि पर विशिष्ट निर्णय ही है। इन विषयों पर प्राचीन काल में निर्णय ( या निश्चय ) इतिहास एवं पुराणों में लिखा गया है । जो वेद में नहीं देखा गया है वह स्मृतियों में लक्षित है, और जो उन दोनों (वेदों एवं स्मृतियों) में नहीं दिखाई देता वह पुराणों में उद्घोषित है। जो वेदों द्वारा घोषित है और जो उपांगों द्वारा घोषित है, वह स्मृतियों एवं पुराणों द्वारा घोषित है । जो व्यक्ति पुराणों को किसी अन्य रूप में देखता है वह तिर्यग्योनि में उत्पन्न होगा ।" और देखिए स्कन्द ( प्रभासखण्ड, २९०९२) । नारदीय ( १ १९५७-५९) में पुनः आया है, 'जो दुष्ट व्यक्ति पुराणों को अर्थवाद के रूप में ( प्रशंसात्मक या निन्दात्मक कथन के रूप में) लेते हैं उनके सभी पुण्य नष्ट हो जाते हैं, जो दुष्ट व्यक्ति उन पुराणों को, जो कर्मों के बुरे प्रभावों को नष्ट करने वाले होते हैं, अथर्वाद कहते हैं, वे नरक में जाते हैं । १४
( विष्णु ३।६।२७) कल्पतरु ( ब्रह्मचारि०, पृ० २) एवं हेमाद्रि ( व्रत, भाग १, पृ० १८ ) एवं कृ० र० ( पू० २७ ) द्वारा उद्धृत किये गये हैं। निरवसित का अर्थ है बहिष्कृत, देखिए पाणिनि - - ' शूद्राणामतिरवसितानाम् ' (२|४| १०) एवं इस पर महाभाष्य ।
२४. पुराणेष्वर्थवादत्वं ये वदन्ति नराधमाः । तैरजितानि पुण्यानि क्षयं यान्ति द्विजोत्तमाः ॥ समस्तकर्मनिर्मूलसाधनानि नराधमाः । पुराणान्व्यर्थवादेन ( पुराणान्यर्थवादेन ? ) ब्रुवन् नरकमश्नुते ॥ नारदीय (११११५७-५९)
अर्थवादाधिकरण जैमिनि (१।२।१-१८) में है । निम्नोक्त वैदिक वचन हैं-- 'सोरोबीद्यदरोदीत्सब्रुद्रस्य रुद्रत्वम्' ( तै० सं० ११५ | १|१), 'स आत्मनो वपामुदक्खिदत्' ( तै० सं० २|१|१), 'देवा वै देवयजनमध्यवसाय विशो न प्राजानन्' ( तै० सं० ६|१|५|१), 'तरति ब्रह्महत्यांऽयोऽश्वमेधेन यजते' ( तै० सं० ५।३।१२।२), 'न पृथिव्यामग्निइतव्यो नान्तरिक्षे न विवि' ( तै० सं० ५।२७) । प्रश्न है : 'क्या इन वचनों को शाब्दिक रूप में लिया जाय, या
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