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वेद-शास्त्र के अधिकारी शूत्रों की स्थिति
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रघुवंश के राम का चरित (रामायण), पराशर के पुत्र (व्यास) द्वारा घोषित भारत (महाभारत); कृपालु व्यास ने चारों वर्णों के कल्याण के लिए एक ऐसे शास्त्र का प्रणयन किया जिसमें वेद एवं धर्मशास्त्रों का सम्पूर्ण अर्थ दिया हुआ है । भव (सागर) में निमग्न वर्णों के लिए यह एक उत्तम नौका है।” इससे स्पष्ट है कि पुराणों, महाभारत एवं रामायण में प्राक्कालीन (प्राचीन ) परम्पराएँ एवं विचार पाये जाते हैं और वे मानो लोगों की शिक्षा के साधनों के रूप में एवं सामान्य लोगों को प्रकाश देने के निमित्त प्रणीत हुए थे । वास्तव में कुछ पुराण, यथा -- अग्नि, मत्स्य, विष्णुधर्मोत्तर आदि ज्ञानोदधिस्वरूप ( विश्वकोशीय ) हैं और उनमें राजनीति, शासन, व्यवहार (कानून), आयुर्वेद, ज्योतिष फलित ज्योतिष, कविता, संगीत, शिल्प आदि विषयों की सांगोपांग चर्चा है। इन ( पुराणों में भारतवर्ष का देश के जीवन एवं चरित्र के रूप में) वर्णन है और उनमें भारत की उपलब्धियों, दुर्बल• ताओं एवं सीमाओं का दिग्दर्शन है। दो प्रश्न हठात् उठ पड़ते हैं - ( १ ) क्या वे पुराण, जिनमें वैदिक मन्त्र उद्धृत हैं, शूद्रों द्वारा पठित हो सकते थे ? यदि मान लिया जाय कि वैदिक मन्त्रों का उच्चारण शूद्र नहीं कर सकते थे, तो क्या वे बिना ब्राह्मणों की सहायता के, स्वयं पुराणों का अध्ययन कर सकते थे ? सभी निबन्धों एवं टीकाओं के लेखक इस बात में एकमत हैं कि पुराणों (जो सभी वर्णों के कल्याणार्थ वैदिक मन्त्र भी रखते हैं) में सम्मिलित वैदिक मन्त्रों को शूद्र लोग न तो पढ़ सकते हैं और न सुन सकते हैं। उन्हें केवल तीन उच्च वर्णों के लोग ही अपने प्रयोग में ला सकते हैं । किन्तु कुछ लेखक पद्मपुराण के एक वचन का सहारा लेकर इस बात को मानते हैं कि शूद्र धार्मिक कृत्यों में पौराणिक मन्त्रों का पाठ कर सकते हैं । किन्तु अन्य लेखक, यथा-- निर्णयसिन्धु एवं शूद्रकमलाकर के लेखक कमलाकरभट्ट जैसे लोग, भविष्य पु० के श्लोकों का सहारा लेकर ऐसा कहते हैं कि शूद्र के लिए किये गये कृत्य में पौराणिक मन्त्रों का पाठ केवल ब्राह्मण कर सकते हैं, शूद्र ब्राह्मण द्वारा जाते हुए पुराण को केवल सुन सकता है। श्रीदत्त जैसे कुछ लेखकों का एक तीसरा मत भी है कि शूद्र लोग पौराणिक मन्त्र का पाठ कर सकते हैं; किन्तु वे स्वयं पुराण को पढ़ नहीं सकते, केवल ब्राह्मण द्वारा पढ़े जाते हुए पुराण को सुन सकते हैं । धर्मसूत्रों के कालों में केवल वैदिक मन्त्रों का प्रयोग होता था अतः गौतम ( १० । ६६ : अनुज्ञातोऽस्य नमस्कारो मन्त्रः ) ने शूद्रों के लिए वैदिक मन्त्र के स्थान पर केवल 'नमः' कहने की छूट दी है। ईसा के पूर्व कई शताब्दियों तक शूद्रों ने बुद्ध के उपदेश सुने थे, क्योंकि वे सभी के लिए घोषित थे । कुमारिल जैसे अपेक्षाकृत पर्याप्त आरम्भिक लेखक यह जानते थे कि बौद्धों में अधिकांश संख्या शूद्रों की है। उनका कथन है'कतिपय दम, दान आदि के वचनों को छोड़कर, शाक्य एवं अन्य लोगों के वचन, विद्या के चौदह प्रकारों के विरुद्ध हैं । ये वचन बुद्ध एवं उन लोगों द्वारा उद्घोषित हैं, जो तीनों वेदों द्वारा उपस्थित मार्ग से दूर थे और उनके विरुद्ध कार्य करते थे । ये वचन उन लोगों में प्रचारित एवं प्रसारित हैं, जो विमूढ़ बना दिये गये हैं, जो तीनों वेदों की सीमा से बाहर हैं, जो चौथे वर्ण (अर्थात् शूद्र) में आते हैं (अर्थात् परिगणित हैं) और जो जाति खो चुके हैं । २३
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२३. शाक्याविवचनानि तु कतिपयदमदानादिवचनवज्जं सर्वाण्येव समस्तचतुवंशविद्यास्थानविरुद्धानि त्रयीमार्गभ्युत्थित विरुद्धाचरणैश्च बुद्धादिभिः प्रणीतानि । त्रयीबाह्येभ्यश्चतुर्थवर्णनिरवसितप्रायेभ्यो व्यामूढेभ्यः समर्पितानीति न वेदमूलत्वेन सम्भाव्यन्ते । तन्त्रवार्तिक ( जैमिनि १।३।४, पृ० १९५, आनन्दाश्रम सं० ) । १४ विद्यास्थान याज्ञ० (१1३) एवं भविष्य (ब्राह्मपर्व २२६) में उद्धृत हैं (४ वेद, ६, वेदांग, पुराण, न्याय, मीमांसा, धर्मशास्त्र ) । कभी-कभी ४ अन्य विद्यास्थान भी जोड़ दिये जाते हैं, यथा 'आयुर्वेदो धनुर्वेदो गान्धर्वश्चैव ते त्रयः । अर्थशास्त्रं चतुर्थ तु विद्या ह्यष्टावशेष ताः ॥ भविष्य (ब्राह्म २|७) एवं विष्णुपु० ३।६।२८ | यह श्लोक एवं अंगानि वेदाश्चत्वारः
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