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________________ धर्मशास्त्र का इतिहास है; यह तो वैसा ही है जैसा कि बहुत-से शास्त्रों एवं कई वेदों को उनके सहायक विस्तृत साहित्य के साथ पढ़ लेने पर होता है, जब कि पुराणों का अध्ययन न किया गया हो। इससे प्रकट होता है कि पुराणों को महत्ता केवल शूद्रों को सुविधा देने के कारण ही नहीं प्राप्त हुई, प्रत्युत उन ब्राह्मणों के लिए व्यवस्थित विधियों के फलस्वरूप भी प्राप्त हुई, जो पहले केवल वैदिक कृत्य ही करते थे। क्रमशः पुराणों का प्रभाव बढ़ता गया। पहले ऐसा कहा गया कि वेद से प्राप्त (अथवा समझा गया) धर्म परमोच्च और पुराणों में घोषित धर्म अवर (हीन अथवा गौण) है। किन्तु यह धारणा परिवर्तित हुई और धर्म तीन प्रकार के घोषित हए-मिश्र, वैदिक एवं तान्त्रिक और भागवत एवं पद्म में ऐसा कहा गया कि विष्ण की पूजा इन तीनों में किसी भी विधि से की जा सकती है। २२ पद्म ने जोडा है कि वैदिक एवं मिश्रक विधियाँ ब्राह्मणों आ के लिए उचित घोषित हैं, किन्तु तान्त्रिक पूजा-विधि वैष्णव एवं शूद्रों के लिए है। देवीभागवत (११।१।२१-२३) में आया है कि श्रुति (वेद) एवं स्मृति धर्म की आँखें हैं, पुराण इसका हृदय है, और यही धर्म इन तीनों द्वारा घोषित है, यह धर्म इन तीनों के अतिरिक्त और कहीं नहीं पाया जा सकता; पुराणों में कभी-कभी वह भी उद्घोषित हुआ है जो तन्त्रों में पाया जाता है, किन्तु उसे ग्रहण नहीं करना चाहिए। ___ भविष्य (ब्राह्मपर्व ११४३-४७) ने शतानीक एवं सुमन्तु की वार्ता में सर्वप्रथम मनु से अत्रि तक के अठारह धर्मशास्त्रों का उल्लेख किया है और कहा है कि वेद, मनु आदि के शास्त्र एवं अंग तीन वर्षों के लिए, न कि शूद्रों के लाभ के लिए उद्घोषित हुए हैं, बेचारे शूद्र, लगता है, असहाय हैं; वे चारों पुरुषार्थों की प्राप्ति कैसे कर सकेंगे? वे आगम (परम्पराजन्य विद्या) से वंचित हैं; ब्राह्मणों में बुद्धिमानों द्वारा उनके लिए कौन-सी परम्पराजन्य विद्या उद्घोषित है जिसके द्वारा वे धर्म, अर्थ एवं काम के तीन पुरुषार्थ पाने में समर्थ होंगे? सुमन्तु ने उत्तर दिया है'मनोषियों द्वारा चारों वर्गों, विशेषतः शूद्रों के लिए जो धर्मशास्त्र उद्घोषित हैं, उन्हें सुनिए, यथा-"१८ पुराण, २०. मया केवलमेवैकोतमार्गानुसारिणा। उद्दिश्य माधवं देवं न स्नातं मासि माधवे॥ वैदिकं केवलं कर्म कृतमज्ञानतो मया। पापन्धनदवज्वालापापद्रुमकुठारिका॥ कृता नैकापि वैशाखी विधिना वत्स पूर्णिमा । अव्रता यस्य वैशाखी सोऽवैशाखो भवेन्नरः। दश जन्मानि स ततस्तिर्यग्योनिषु जायते ॥ पग (४।९४६८/८८-९०; बहुशास्त्रं समभ्यस्य बहून्वेदान् सविस्तरान्। पुंसोऽश्रुतपुराणस्य न सम्यग्याति दर्शनम् ॥ पद्म (४।१०५।१३)। २१. अतः स परमो धर्मो यो वेदादधिगम्यते । अवरः स तु विज्ञेयो यः पुराणाविषु स्मृतः॥ व्यास (अपरार्क, पृ० ९; हेमाद्रि, व्रत १, पृ० २२; परिभाषाप्रकाश, पृ० २९)। कृत्यरत्नाकर (पृ० ३९) ने 'अपरः स तु विज्ञेयो' पढ़ा है। यह द्रष्टव्य है कि अपरार्क ने 'अवरः' पढ़ा है किन्तु अपरार्क के लगभग दो शतियों के उपरान्त कृ०र० ने 'अपरः' (अन्य अर्थात् दूसरा) पढ़ा है। २२. वैदिकस्तान्त्रिको मिश्र इति मे त्रिविधो मखः। त्रयाणामीप्सितेनैव विधिना मां समर्चयेत् ॥ भागवत (१२७।७, नित्याचारपद्धति, पृ० ५१० द्वारा उद्धृत); पद्म० (४।९०॥३-४) ने इस प्रकार पढ़ा है--'वैदिक... श्रीविष्णोस्त्रिविधो मखः। त्रयाणामुदितेनैव विधिना हरिमर्चयेत् ॥ वैदिको मिश्रको वापि विप्रादीनामुदाहृतः। तान्त्रिको विष्णुभक्तस्य शूद्रस्यापि प्रकीर्तितः॥ देखिए अग्निपु० (३७२१३४) जहाँ ये शब्द समान रूप से आये हैं। मिलाइए वृद्धहारीतस्मृति (१११७७): 'श्रौतस्मार्तागमविष्णोस्त्रिविषं पूजनं स्मृतम् । एतच्छ्रोतं ततः स्मातं पौरुषेण च यत्स्मृतम् ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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