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वेदों के प्रति पुराणों का आदर
४३३ इसमें सन्देह नहीं कि पुराण यत्र-तत्र अपने को वेदों से श्रेष्ठ ठहराते हैं तथा अपने मूल्य एवं प्रभाव को सिद्ध करते हैं, किन्तु वे उपनिषदों के समान ही वेदों के प्रति मनोवृत्ति रखते हैं। वे वेदों को प्रमाण मानते हैं और कतिपय कृत्यों में वैदिक मन्त्रों का प्रयोग करते हैं। मत्स्य (अध्याय ९३) ने नव-ग्रहों के होम की विधि में वैदिक मन्त्रों का उल्लेख किया है जिनमें ५ मन्त्र याज्ञ० (११३००-३०१) से भिन्न हैं। देखिए मत्स्य (९३।११-१२)। उद्वाहतत्त्व में रघुनन्दन का कथन है कि 'आ कृष्णेन' तथा अन्य मन्त्र चारों वेदों को मानने वालों में समान हैं। यही बात भवदेव भट्ट ने भी कही है। मत्स्य में ऐसी व्यवस्था है कि जब घर के पास या उसमें (उल्लू जैसे) अशुभ पक्षी देखे जायें या इसी प्रकार पशु चिल्लायें तो होम किया जाना चाहिए और ऋ० (१०।१६५।१-५) की पांच ऋचाओं के जप के लिए पांच ब्राह्मणों को नियुक्त करना चाहिए। देवमूर्ति या लिंग की स्थापना की विधि के वर्णन में मत्स्य (अध्याय २६५) ने (उस उत्सव के लिए) विविध ऋचाओं की व्यवस्था दी है। और देखिए अग्निपुराण (४१।६-८) जहाँ मन्दिर-निर्माण के सिलसिले में ऋचाओं का उल्लेख किया गया है, यथा--ऋ० (१०।९।१-३, १०।९।४, ९।५८।१-४) आदि। नारदीयपुराण (२०७३।८३-९०) ने प्रत्येक श्लोक के अन्त में वैदिक प्रार्थना के अंश रखे हैं (ऋ० ७१६६।१६, ते० आ० ४।४।२-५ एवं वाज० सं० ३६।२४ में वे प्रार्थनाएँ हैं)। भागवत का १।२।२१ मुण्डकोपनिषद् (२।२।८) से उद्धृत है।
पुराण बहुत-सी बातों में न केवल वैदिक मन्त्रों की व्यवस्था करते हैं, प्रत्युत बहुत-से पौराणिक मन्त्रों के प्रयोग की भी चर्चा करते हैं। ऐसा लगता है कि ईसा की प्रथम शती के आरम्भ में ही या कुछ शतियों उपरान्त ही ब्राह्मणों के धार्मिक कृत्यों में वैदिक मन्त्रों के साथ पौराणिक मन्त्र भी व्यवहृत होने लगे। याज्ञ० (११२२९) में व्यवस्था है कि विश्वेदेवों को श्राद्ध के समय ऋ० (२।४१११३ : 'हे विश्वेदेव लोग, आइये, मेरे इस आह्वान को सुनिए और इन कुशों पर बैठिए') के मन्त्र के साथ बुलाना चाहिए। इस पर मिताक्षरा (लगभग ११००ई०) में आया है कि याज्ञ० द्वारा उल्लिखित मन्त्र के साथ स्मार्त मन्त्र का भी प्रयोग होना चाहिए, और वह मन्त्र स्कन्द एवं गरुड़ में पाया जाता है। वायुपुराण ने व्यवस्था दी है कि 'देवों, पितरों, महायोगियों, स्वधा एवं स्वाहा को नमस्कार; वे सदा उपस्थित हैं' नामक मन्त्र का वाचन पिण्डदान के समय श्राद्ध के आरम्भ एवं अन्त में करना चाहिए; जब मन्त्र दुहराया जाता है तो पितर लोग शीघ्र आ जाते हैं और यातुधान लोग भाग जाते हैं, यह मन्त्र पितरों की तीनों लोकों में रक्षा करता है।' इस मन्त्र को 'सप्ताचि' (जिसमें सात ज्वाला हों) की संज्ञा मिली है (वायु ७४१२०, ब्रह्माण्ड ३।११।३०, विष्णुधर्मोत्तर १।१४०।६८, हेमाद्रि, श्राद्ध, पृ० १०७९ एवं १२०८, जिसने ऐसा
१३. मृगपक्षिविकारेषु कुर्यायोमं सदक्षिणम् । वेवाः कपोत इति वा जप्तव्याः पञ्चभिद्विजः॥ मत्स्य २३७।
१४. मन्त्र यह है--'आगच्छन्तु महाभागा विश्वेदेवा महाबलाः। ये यत्र विहिताः श्राद्ध सावधाना भवन्तु ते॥ यह गरुपपुराण (१२२१८३७) है। किन्तु इसे अपरार्क ने पृ० ४७८ पर बृहस्पति का एवं पृ० ४८१ पर ब्रह्मपुराण का कहा है।
१५. मन्त्र यह है--'देवताभ्यः पितृभ्यश्च महोयोगिभ्य एव च । नमः स्वधायै स्वाहाय नित्यमेव भवन्त्युत ॥ वायु ७४११५-१६। और देखिए ब्रह्माण्ड (३।११।१७-१८)। मिताक्षरा (याज्ञ० १११२१) में आया है कि इस मन्त्र का प्रयोग शूद्रों द्वारा दैनिक पंच यज्ञों में होना चाहिए, किन्तु कुछ अन्य लोगों का कथन है कि शूद्रों को केवल 'नमः' कहने का ही अधिकार है।
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