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धर्मशास्त्र का इतिहास
वस्था एवं मृत्यु को प्राप्त होते हैं।" कठोपनिषद् का कथन है कि जो अविद्या एवं विद्या है, दोनों एक दूसरे से बहुत दूर हैं , विपरीत हैं और विभिन्न फल देने वाली हैं। जब नारद सनत्कुमार के पास गये और उनसे शिक्षा देने के लिए प्रार्थना की तो सनत्कुमार ने पूछा, 'बताओ, तुम कितना जानते हो, तब मैं बताऊँगा कि उसके आगे क्या है।' तब नारद ने बताया कि वे चारों वेद, इतिहासपुराण (नामक) पाँचवाँ वेद, कतिपय अन्य विद्याएँ जानते हैं। इस पर सनत्कुमार ने कहा कि तुमने (नारद ने) जो चार वेद एवं अन्य विद्याएँ पढ़ी हैं, वे नाममात्र हैं। इसके उपरान्त सनत्कुमार ने नारद को क्रमशः परमात्मा का ज्ञान दिया। बहदारण्यकोपनिषद (१४।१०) ने उस व्यक्ति की भर्त्सना की है, जो यह समझ कर कि वह देवता से भिन्न है किसी इष्ट की पूजा करता है। जो व्यक्ति सत्य नहीं जानता, वह देवताओं वाले यज्ञिय पश के समान है। इसी प्रकार, उपनिषदों के कतिपय वचनों द्वारा व्यक्त होता है कि वे तप, उदारता, ऋजुता, अहिंसा एवं सत्यता को यज्ञ के सम्पादन के बराबर या उससे उत्तम समझते हैं (देखिए छान्दोग्य ३।१७।४, प्रश्न १११५, मुण्डक ११२।११)।
। यद्यपि उपनिषदों के कुछ वचनों में 'परम आत्मा' का ज्ञान चारों वेदों से उत्तम माना गया है, किन्तु सामान्यतः उपनिषदें वेदों को प्रमाण मानती हैं और अपने कथनों की पुष्टि में वेद के मन्त्र उद्धृत करती हैं। उदाहरणार्थ, ऐत० उप० (२१५) ने ऋ० (४।२७।१ : तदुक्तमृषिणा गर्ने नु आदि) को, प्रश्नोपनिषद् (११११) ने ऋ० (१११६४।१२ : पंचपादं पितरम् ) को, बृहदारण्यकोपनिषद् (२।५।१५।१७ एवं १९) ने ऋ० (११११६।१२, ११११७।२२, ६॥४७॥१८ : रूपं रूपं प्रतिरूपो) को उद्धृत किया है। उपनिषदों ने पुनः बल देकर कहा है कि ब्रह्मविद्या उसी को दी जानी चाहिए जो श्रोत्रिय (वेदज्ञ) हो, जो कर्तव्यशील हो और जिसने शिरोव्रत सम्पादित कर लिया हो। बृह० उप० का कथन है कि वेदाध्ययन, यज्ञों, दानों आदि से ब्रह्म-ज्ञान की तैयारी होती है (अर्थात् ये ब्रह्मज्ञान के उपकरण हैं) : ब्राह्मण (तथा अन्य लोग) वेदाध्ययन, यज्ञों, दानों, तपों एवं उपवास से इसे (परम आत्मा को) जानने की इच्छा करते हैं।१२ उपर्युक्त बातें स्पष्ट करती हैं कि उपनिषदें वेदों एवं यज्ञों की सम्पूर्णतः भर्त्सना नहीं करती, प्रत्युत ब्रह्मज्ञान के लिए इन्हें आवश्यक उपकरण के रूप में स्वीकार करती हैं।
९. द्वे विद्ये वेदितव्ये इति ह स्म यद् ब्रह्मविदो वदन्ति परा चैवापरा च । तत्रापरा ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोथर्ववेदः शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुक्त छन्दो ज्योतिषमिति। अय परा यया तदक्षरमधिगम्यते॥ मुण्डकोप० (११११४-५); प्लवा ह्येते अदृढा यज्ञरूपा अष्टादशोक्तमवरं येषु कर्म। एतच्छ्रेयो येऽभिनन्दन्ति मूढा जरामृत्युं ते पुनरेवापियन्ति ॥ मुण्डकोप० ११२१७ । १८ व्यक्ति ये हैं, १६ पुरोहित, यज्ञकर्ता एवं यज्ञकर्ता की पत्नी। वेदान्तसूत्र (२।२१) के भाष्य में शंकराचार्य ने कहा है कि यह श्लोक अपरा विद्या की भर्त्सना के लिए है।
१०. दूरमेते विपरीते विषूची अविद्या या च विद्येति ज्ञाता। कठोप० ११२।४।
११. तदेतद् ऋचाभ्युक्तम् । क्रियावन्तः श्रोत्रिया ब्रह्मनिष्ठाः स्वयं जुह्वत एकर्षि श्रद्धयन्तः। तेषामेवैतां ब्रह्मविद्यां वदेत शिरोव्रतं विधिवद् यैस्तु चीर्णम् ॥ मुण्डकोप० ३।२।१०। शिरोवत में सिर पर अग्नि रखना होता है (जैसा कि आथर्वण नियम है)। देवीभागवत (११।९।१२-१३) में आया है--'अग्निरित्यादिभिः मन्त्रः षड्भिः शुद्धन भस्मना। सर्वागोबूलनं कुर्यात् शिरोव्रतसमाह्वयम् ॥...यावद्विद्योदयस्तावत्तस्य विद्या खलूत्तमा।' अथर्वशिरस् मन्त्र ६ हैं--'अग्निरिति भस्म, वायुरिति भस्म, जलमिति भस्म, स्थलमिति भस्म, व्योमेति भस्म, सर्व हवा इदं भस्म।'
१२. तमेतं वेदानुवचनेन ब्राह्मणा विविदिषन्ति यज्ञेन दानेन तपसानाशकेन । बृह० उप० ४।४।२२; देखिए गीता १८०५ : यज्ञदानतपः कर्म न त्याज्य कार्यमेव तत्। यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम् ॥
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