________________
पुराणों एवं उपपुराणों पर संक्षिप्त टिप्पणियाँ
४२७ (स्टडीज इन एपिक्स एण्ड पुराणज, पृ० ३१-४१) का कथन है कि मुद्रित वायु एक शुद्ध महापुराण है तथा शिवपुराण पश्चात्कालीन कृति है और वह मात्र उपपुराण है। अल्बरूनी (सची; जिल्द १, पृ० १३१) में इसके विषय का प्राचीनतम संकेत एवं उल्लेख है। दानसागर ने इसे उद्धृत किया है, किन्तु कल्पतरु, अपरार्क एवं स्मृतिच० ने नहीं। यह सात संहिताओं में विभक्त है, यथा-विद्येश्वर, रुद्रसंहिता (सृष्टि, सती, पार्वती, कुमार एवं युद्ध नामक पाँच भागों में), शतरुद्र, कोटिरुद्र, उमा, कैलास, वायवीय (दो भागों में) । इसमें लगभग २३,००० श्लोक हैं। शतरुद्रसंहिता (अध्याय ४२) में १२ ज्योतिलिंगों का उल्लेख है, वे रुद्र के अवतार कहे गये हैं और उनका वर्णन उपस्थित किया गया है। कोटिरुद्रसंहिता (अध्याय ३५) में शिव के एक सहस्र नाम दिये हुए हैं। कैलाससं० (अध्याय ५) में पूजा के मण्डल का वर्णन है तथा अध्याय ७।५-२६ में कतिपय मुद्राओं एवं न्यासों की व्यवस्था है। रुद्रसंहिता के 'पार्वती' भाग में जो वर्णन है वह इस पुराण को कुमारसम्भव के समान प्रकट कर देता है।
शिवधर्म-देखिए ह० (जे० जी० जे० आर० आई०, जिल्द १०, पृ० १-२०); अपरार्क (पृ० २७४, याज्ञ० १२१९३) ने इससे एक श्लोक उद्धृत किया है, जो याज्ञवल्क्यस्मृति का अन्वय मात्र है।
__ सौर (उप०)-देखिए ह० (एन० आई० ए०, जिल्द ६, पृ० १०३-१११ एवं १२१-१२९; बी० बी०, जिल्द ४, पृ० २१२-२१६ एवं स्टडीज़, जिल्द १, पृ० ३४८।।
स्कन्दपुराण-यह विशालतम पुराण है और इससे सम्बन्धित समस्याएँ बड़ी चक्करदार हैं। यह दो रूपों में प्राप्त है; एक सात खण्डों में विभाजित है, यथा-माहेश्वर, वैष्णव, ब्राह्म, काशी, आवन्त्य, नागर एवं प्रभास; और दूसरा ६ संहिताओं में विभक्त है, यथा--सनत्कुमार, सूत, शांकरी, वैष्णवी, ब्राह्मी एवं सौर। वेंक० प्रेस ने सात खण्डों वाला स्कन्द प्रकाशित किया है और आनन्दाश्रम प्रेस ने माधवाचार्य की टीका के साथ सूतसंहिता का प्रकाशन किया है। इसके विस्तार के विषय में कई पाठ हैं, यथा ८१,००० श्लोक, १,००,००० श्लोक (पी० आर० एच० आर०, पृ० १५८), ८६,००० (वही, पृ० १५९)। इस पुराण का नाम स्कन्द तो है, किन्तु स्कन्द देवता का वर्णन विशद एवं प्रमुख रूप से नहीं हुआ है। स्कन्द का नाम पद्म (५।५९।२) में आया है। स्कन्द (१।२।६७९) सर्वथा किरातार्जुनीय (२।३० ‘सहसा विदधीत न क्रियाम्') के समान है। स्कन्द का काशीखण्ड (२४१८) श्लेष एवं परिसंख्या में बाण की शैली के समान है, यथा--'यत्र क्षपणका इव दृश्यन्ते मूलधारिणः' (श्लोक २१) या 'विभ्रमो यत्र नारीषु न विद्वत्सु च कहिचित्' (श्लोक ९)। नाट्यवेद एवं अर्थशास्त्र का उल्लेख काशीखण्ड (पूर्वार्ध ७।४-५) में हुआ है। धन्वन्तरि एवं चरक का उल्लेख काशीखण्ड (पूर्वार्ध ११७१) में आयुर्वेद पर हुआ है। 'झोटिंग' शब्द काशीखण्ड (७२।७४) में आया है (झोटिंगा राक्षसाः क्रूराः)। आरम्भिक टीकाओं एवं निबन्धों में धर्मशास्त्र-विषयक प्रकरणों के सिलसिले में स्कन्द से उद्धरण लिये गये हैं। मिताक्षरा (याज्ञ० २।२९०) ने वेश्या की स्थिति के विषय में चर्चा करते हुए इसका उल्लेख किया है। कल्पतरु ने व्रत पर १५, तीर्थ पर ९२, दान पर ४४, नियतकाल पर ६३, राजधर्म (कौमुदीमहोत्सव) पर १८, श्राद्धकाण्ड में केवल ४ एवं गृहस्थकाण्ड में २ श्लोक उद्धृत किये हैं। अपरार्क ने केवल १९ श्लोक लिये हैं, जिनमें एक उद्धरण तान्त्रिक परम्परा में आ गया है। दानसागर ने दान पर इससे ४८
१९. सहसा न क्रियां कुर्यात् पवमेतन्महापदाम्। विमृश्यकारिणं धीरं वृणते सर्वसम्पदः॥ स्कन्द (१२६७९)।
२०. अपरार्क ने याज्ञ० (१२२०४) की टीका में गोदान के विषय में चर्चा करते समय स्कन्दपुराण को उद्धृत किया है। साढ़े पांच श्लोकों को उद्धृत करने के उपरान्त एक गद्य मन्त्र इस प्रकार उद्धृत है--'ओं ह्रीं नमो
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org