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धर्मशास्त्र का इतिहास
अवलोकनीय बात यह है कि इसने शाक्य, शुद्धोदन एवं राहुल का उल्लेख किया है और ऐसा आया है कि शुद्धोदन इक्ष्वाकुवंश के बृहद्बल से २३ वीं पीढ़ी में उत्पन्न हुआ था । क्षेपकों की, विशेषतः गद्यांशों में, सम्भावनाएँ स्पष्ट हैं । इसमें राशियों, लग्न एवं होरा का उल्लेख हुआ है । वाचस्पति ने अपने योगभाष्य की टीका में ( २१३२) यमों एवं नियमों (विष्णु ६।७।३६-३८) का नाम लेकर इस पुराण से बातें उद्धृत की हैं। और देखिए विष्णु ० ६।७।४९ एवं योगभाष्य ३।४९ । वाचस्पति ने अपना न्यायसूचीनिबन्ध ८८८ वत्सर में लिखा, जिसे विक्रम संवत् मानना चाहिए, क्योंकि वे उत्तर भारतीय थे और 'वत्सर' शब्द का प्रयोग हुआ है न कि 'शक' शब्द का । अतः इस निबन्ध की तिथि हुई सन् ८३१ ई० ।
निम्नलिखित निर्देश उपर्युक्त प्रश्न के विषय में पढ़े जा सकते हैं -- विल्सन की भूमिका ( विष्णुपु०, जिल्द १ का अनुवाद) ; ह० ( विष्णुपु० की तिथि, ए० बी० ओ० आर० आई०, जिल्द १८, पृ० २६५-२७५ एवं पी० आर० एच० आर०, पृ० १९-२६) ने इसे १००-३५० ई० के बीच रखा है; प्रो० दीक्षितार (प्रोसीडिंग, इण्डियन हिस्ट्री काँग्रेस, १३ वाँ अधिवेशन, पृ० ४६-५० ) ; जैकोबी ( जे० ओ० एस० ए० बी० एस पृ० ३८६-३९६ ) । दानसागर ने २३,००० श्लोक वाले एक विष्णुपुराण का उपयोग नहीं किया है। आज के विष्णुपुराण को ३०० ई० एवं ५०० ई० के बीच में कहीं रखना सत्य से बहुत दूर नहीं होगा ।
विष्णुधर्मपुराण (उप० ) -- हमने इसकी तिथि के विषय में चर्चा करते हुए प्रो० हजा के विचार पढ़ लिये हैं । प्रो० अशोक चटर्जी ने इसे १२५०-१३२५ ई० के बीच रखा है ( ए० बी० ओ० आर० आई०, जिल्द ३८, पृ० ३०५३०८ ) । हरप्रसाद शास्त्री का कथन है कि इसकी एक पाण्डुलिपि सन् १०४७ में की गयी । बुहलर ने कहा है कि यह एवं विष्णुधर्मोत्तर अल्बरूनी के मत से धर्म-पुस्तकें हैं (इण्डियन एण्टीक्वेरी, जिल्द १९, पृ० ४०७ ) । हरप्रसाद शास्त्री के मत के लिए देखिए 'नेपाल ताड़पत्र पाण्डुलिपि' ( पृ० ५३) ।
विष्णुधर्मोत्तर ( उप०, वेंक० प्रेस संस्करण ) -- यह एक विशद ग्रन्थ है । हमने इस पर पहले भी ( गत अध्याय में) पढ़ लिया है। कल्पतरु ने अपने व्रत, तीर्थ, ब्रह्मचारी, गृहस्थ, राजधर्म, मोक्ष एवं अन्य काण्डों में इससे उद्धरण नहीं लिया है। अपरार्क ने केवल ३० श्लोक ( जिनमें २४ दान पर हैं) लिये हैं । स्मृतिच० ने भी ३० श्लोक लिये हैं । किन्तु दानसागर ने दान पर बहुत से श्लोक उद्धृत किये हैं । यह छठी शती से पुराना और १०वीं शती के पश्चात् का नहीं हो सकता, किन्तु इसके कुछ अंश पश्चात्कालीन क्षेपक या परिवर्धन के रूप में हैं। इसके प्रथम भाग के अध्याय ५२ -६५ शंकर- गीता के नाम से विख्यात हैं। कालिकापुराण ने स्पष्ट रूप से (९११७० एवं ९२/२) विष्णुधर्मोत्तर की ओर संकेत किया है कि उसमें राजनीति एवं सदाचार पर बातें दी हुई हैं ।
साम्बपुराण (उप०, वेंक० प्रेस संस्करण ) -- देखिए ह० ( 'साम्बपुराण थ्रू दि एजेज़', जे० ए० एस० बी०, जिल्द १८, १९५२, पृ० ९१-१११; 'ऑन साम्बपुराण ए शैव ग्रन्थ', ए० बी० ओ० आर० आई०, जिल्द ३६, १९५५, पृ० ६२-८४ एवं 'स्टडीज़ आदि', जिल्द १, पृ० ३२-१०८ ) । आरम्भिक निबन्धों, यथा -- कल्पतरु, अपरार्क या स्मृति ने इससे उद्धरण नहीं लिया है। दानसागर ने इससे चार श्लोक उद्धृत किये हैं। प्रो० हजा ने जो यह कहा है कि भविष्य एवं ब्रह्मपुराण ने साम्ब से उद्धरण लिया है, प्रस्तुत लेखक को मान्य नहीं है, क्योंकि साम्बपुराण के विषय में स्वयं प्रो० हया ने विज्ञापित किया है कि इसमें कुछ ऐसे अंश हैं जो भाँति-भाँति के कालों एवं स्थानों में विभिन्न रूप धारण करते रहे हैं । किन्तु इतना कहा जा सकता है कि अल्बरूनी ने सन् १०३० ई० में साम्ब नामक पुराण का उल्लेख किया है।
शिवपुराण ( कुछ पुराणों के मत से एक महापुराण ) - वेंक० प्रेस द्वारा दो जिल्दों में प्रकाशित, देखिए ह० 'प्रॉब्लेम दी लेटिंग टु शिवपुराण' (अवर हेरिटेज, कलकत्ता, १९५३, जिल्द १, भाग १, पृ० ४६-४८ ) । डा० पुसल्कर
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