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________________ पुराणों एवं उपपुराणों पर संक्षिप्त टिप्पणियाँ ४२५ विष्णुपुराण-(वेंक० प्रेस संस्करण एवं शक संवत् १८२४ में मेसर्स गोपाल नारायण एवं कम्पनी द्वारा प्रकाशित, जिसमें रत्नगर्भ भट्टाचार्य की टीका वैष्णवाकूतचन्द्रिका तथा विष्णुचित्ती नामक एक अन्य टीका भी है)। आज का (वेंक० प्रेस वाला) संस्करण ६ अंशों, १२६ अध्यायों एवं लगभग ६००० श्लोकों में विभाजित है। गद्य में भी कई अध्याय हैं, यथा चौथे अंश में अध्याय ७, ८ एवं ९; गद्य एवं पद्य वाले अध्याय हैं १, २, ६, ११, १२ आदि जो चतुर्थ अंश के हैं। पंच-लक्षण रूप में यह पुराण अन्य पुराणों की अपेक्षा अधिक महत्त्वपूर्ण है। यह वसिष्ठ के पुत्र पराशर द्वारा मैत्रेय के प्रति कहा गया है। पराशर ने इसे सारस्वत से, सारस्वत ने नर्मदा के तट पर राजा पुरुकुत्स से सुना था और पुरुकुत्स ने दक्ष आदि से तथा दक्ष आदि ने इसे ब्रह्मा से सुना था। ब्रह्माण्ड (३।६८।९७-१०३) के सात श्लोक विष्णु (४।१०।२३-२७) से मिलते हैं (उस विषय में जो ययाति ने तृष्णा के बारे में कहा है)। यही ब्रह्मपुराण में भी है (१२।४०-४६)। लगता है, सभी ने इस विषय में महाभारत (आदिपर्व ७५।४४,८५।९ एवं अनुशासन ७।२१) से उधार लिया है। मिताक्षरा (याज्ञ० ३।६) ने नारायणबलि पर विष्णुपुराण से १४ श्लोक उद्धृत किये हैं। कल्पतरु ने मोक्ष पर २५०, नियतकाल पर ७०, ब्रह्मचारी पर २१, श्राद्ध पर २८, तीर्थ पर २१, गृहस्थकाण्ड पर ४५ श्लोक लिये हैं। अपरार्क ने विष्णुपुराण से ७५ एवं स्मृति-च० ने १०० श्लोक उद्धृत किये हैं। काव्यप्रकाश (४) ने इससे (५।१३।२१-२२) दो श्लोक लिये हैं, जिनमें एक गोप-कन्या द्वारा कृष्णभक्ति से मोक्ष-पद की प्राप्ति की सूचना दी हुई है (यहाँ अतिशयोक्ति पर आधारित रसध्वनि के उदाहरण हैं)। कहीं-कहीं विष्णुपुराण में अद्वैत दर्शन का सिद्धान्त विवेचित है -'जो मोक्ष की इच्छा रखता है उसे चाहिए कि वह सब के साथ समान व्यवहार करने का प्रयत्न करे, देव, मनुष्य, पशु, पक्षी, वृक्ष एवं रेंगने वाले जीव अनन्त विष्णु के ही विभिन्न रूप हैं, जो यह जानता है उसे चाहिए कि वह इस विश्व को अपने समान ही जाने।' एक अन्य स्थान पर विष्णुपुराण में आया है'--'मन ही मनुष्यों के बन्धन एवं मोक्ष का कारण है; वह मन जो विषय-संगी है बन्धनयुक्त होता है और जब वह निविषय होता है तो मोक्ष प्राप्त कराने वाला होता है।' यह पुराण गीता के मूल सिद्धान्त की ओर भी ले जाता है, यथा 'बिना फल की इच्छा किये जो कर्म किया जाता है वह बन्धन की ओर नहीं ले जाता।८ विष्णुपुराण की तिथि निश्चित करना कठिन है। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि यह प्राचीन पुराणों में परिगणित है और इसकी बातें बहुत अधिक प्रक्षिप्त नहीं हैं। कल्पतरु, अपरार्क एवं स्मृतिचन्द्रिका में उद्धृत बातें आज के संस्करण में उपलब्ध हैं, इससे यह सिद्ध है कि लगभग १००० वर्षों से यह ज्यों-का-त्यों है। यह द्रष्टव्य है कि अन्य पुराणों की भांति इसमें व्यास एवं सूत बहुत महत्त्वपूर्ण हाथ नहीं रखते। जैसा कि कुछ अन्य पुराणों में भी आया है, इसका कथन है कि व्यास के चार शिष्य थे, जिन्हें उन्होंने वेद सिखाये और पांचवें शिष्य सूत लोमहर्षण थे (३। अध्याय ३-७) । किन्तु इस पुराण के वर्णनकर्ता के रूप में सूत का दर्शन नहीं होता। चौथे अंश में एक १६. यतितव्य समत्वे च निर्वाणमपि चेच्छता । देवा मनुष्याः पशवः पक्षिवृक्षसरीसृपाः॥ रूपमेतदनन्तस्य विष्णोभिन्नमिव स्थितम् । एतद् विजानता सर्व जगत्स्थावरजंगमम् । द्रष्टव्यमात्मवद्विष्णुर्यतोऽयं विश्वरूपधृक् ॥ विष्णुपु० (१।१९।४६-४८)। १७. मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः। बन्धाय विषयासंगि मुक्त्यै निर्विषयं मनः॥ विष्णुपु० ६७।२८। १८. बुभुजे विषयान् कर्म चक्रे चानभिसंहितम् । विष्णु ६७११०५'तत्कर्म यन्न बन्धाय सा विद्या या विमुक्तये। विष्णुपु० १११९४१। ५४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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