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________________ ४२२ धर्मशास्त्र का इतिहास है। अपरार्क ने ८५ श्लोक (४२ योग पर, शेष श्राद्ध, दान, आतिथ्य, शुद्धि आदि पर) लिये हैं। स्मृतिचन्द्रिका ने १५ श्लोक आह्निक पर, ४० श्राद्ध पर उद्धृत किये हैं। मार्कण्डेय ने कतिपय श्लोक मनु एवं महाभारत से लिये हैं। मार्कण्डेय में लम्बे-लम्बे रूपक भी आये हैं, यथा ३.५९-७० (जहाँ प्रज्ञा को दुर्ग-भित्ति एवं आत्मा को उसमें निवास करने वाला राजा कहा गया है) एवं ३५।८-१३ (अहमित्यंकुरोत्पन्नः आदि)। इसमें बहु विख्यात यह विचार आया है कि नारियों को अपने जन्म के घर में बहुत दिनों तक रहना श्रेयस्कर नहीं है, बान्धवों की यही इच्छा रहती है कि विवाहित स्त्री अपने पति के गृह में रहे। मार्कण्डेय का कथन है कि दुःख का एकमात्र कारण है स्वत्व (अर्थात् यह मेरा है) और निर्वृत्ति है इसका अभाव (अर्थात् यह मेरा नहीं हैं)।२ अध्याय १६०।३० में लग्न एवं होरा का उल्लेख है। इसमें गीता का यह सिद्धान्त आया है कि बिना फल की इच्छा के किया गया कर्म व्यक्ति को संसार के बंधन से नहीं बाँधता। दूसरी ओर इन पुराण में उन दत्त या दत्तात्रेय की कथा भी आयी है", जिन्होंने अलर्क को योग की शिक्षा दी थी (अध्याय १६ से आगे) और जो विष्णु के अवतार के रूप में वर्णित हैं तथा मद्यप, स्त्रियों की संगति के विषयी एवं सह्याद्रि पर पत्थर एवं लकड़ी से बने जलाशय के पास रहने वाले कहे गये हैं (१६।१३२) तथा अवधूत के रूप में उल्लिखित हैं (१७।३)। ५४ वें अध्याय में ऐसा आया है (जैसा कि हमने देख लिया है, ब्रह्माण्ड २।१६।४३-४४) कि सह्य की श्रेणियों के उत्तर में एवं गोदावरी के सन्निकट जो स्थान है वह विश्व में सबसे अधिक रमणीक है। यह पुराण आरम्भिक पुराणों में परिगणित है और इसकी तिथि चौथी एवं छठी शतियों के बीच में कहीं पड़ सकती है। लिंगपुराण (वेंकटेश्वर प्रेस संस्करण)-जैसा कि इसमें (२।५) आया है, इसमें ११,००० श्लोक हैं। कल्पतरु ने तीर्थ की चर्चा में इससे अविमुक्तक (बनारस, अब इसे वाराणसी कहा जाने लगा है) एवं इसके अन्य उपतीर्थों के विषय में लगभग १००० श्लोक उद्धृत किये हैं। अपरार्क ने अष्टमी एवं चतुर्दशी की तिथियों में शिवपूजा एवं ग्रहणों में स्नान एवं श्राद्ध के विषय में छः श्लोक उद्धृत किये हैं। स्मृतिचन्द्रिका ने ग्रहण-स्नान, वेदाध्ययन आदि के विषय में इससे कुछ श्लोक ग्रहण किये हैं। दानसागर (पृ०७, श्लोक ६४) के मत से ६,००० श्लोकों वाला एक अन्य लिंगपुराण भी था जिसका उसने उपयोग नहीं किया। देखिए ह० (इण्डियन कल्चर, जिल्द ४, पृ० ४१५-४२१ एवं पी० आर० एच० आर०, पृ० ९२-९६)। १२. बान्धवेषु चिरं वासो नारीणां न यशस्करः । मनोरथो बान्धवानां नार्या भर्तगहे स्थितिः॥ मार्क० ७४।१९। मिलाइए शाकुन्तल ५ 'सतीमपि ज्ञातिकुलकसंश्रयां जनोन्यथा भर्तृमती विशंकते।' - १३. ममेति मूलं दुःखस्य न ममेति च निर्वृतिः। मार्क० ३५।६; न च बन्धाय तत्कर्म भवत्यनभिसंषितम् । मार्क० ९२।१५। १४. बत्तात्रेय एवं कार्तवीर्य को दिये गये उनके वरों की गाथा कई पुराणों में आयी है। देखिए मत्स्य(४३।१५), ब्रह्म (१३३१६०)। ब्रह्माण्ड (३१८१८४) में एक पौराणिक श्लोक उद्धृत है : 'अत्रेः पुत्रं महात्मानं शान्तात्मानमकल्मषम् । दत्तात्रेयं तनुं विष्णोः पुराणज्ञाः प्रचक्षते ॥' भागवत (१२३५२) में विष्णु के २२ अवतार उल्लिखित हैं, जिनमें दत्तात्रेय छठे हैं, जिन्होंने अलर्क एवं प्रह्लाद को आन्वीक्षिकी (अध्यात्मविद्या) का ज्ञान दिया। मार्क (वेक० प्रेस, १७।१०।१३) में दत्तात्रेय ने कहा है : 'ये च मां पूजयिष्यन्ति गन्धमाल्यादिभिर्नराः। मांसमोपहारश्च मिष्टान्नैश्चात्मसंयतः॥...तेषामहं परां पुष्टिं पुत्रदारधनादिकीम् । प्रदास्याम्यवधूतश्च हनिष्याम्यवमन्यताम् ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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