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________________ पुराणों एवं उपपुराणों पर संक्षिप्त टिप्पणियाँ ४२१ क्या है । प्रस्तुत लेखक के मत से कालिदास मत्स्य की घटना से परिचित थे । कुछ लोगों का मत है कि कालिदास लगभग ई० पू० ५७ में विक्रमादित्य के काल में थे। किन्तु प्रस्तुत लेखक को यह मान्य नहीं है । यह सिद्ध करने के लिए हमारे पास कोई पुष्ट प्रमाण नहीं है कि ई० पू० ५७ में उत्तर भारत एवं मध्य भारत में विक्रमादित्य नामधारी कोई शक्तिशाली राजा था। नवरत्नों वाली गाथा निरर्थक है और यदि वह सार्थक भी है तो विक्रमादित्य नामक राजा (जिसके राज्य में वे नवरत्न थे) ५ वीं या ६ ठी शती में हुआ होगा, तभी अमरसिंह, वराहमिहिर एवं कालिदास समकालीन कहे जायेंगे। गुप्त सम्राट् चन्द्रगुप्त द्वितीय के एक सिक्के पर आया है- 'क्षितिमवजित्य सुचरितैदिवं जयति विक्रमादित्यः ।' प्रस्तुत लेखक के मत से कालिदास की तिथि ३५० ई० एवं ४५० ई० के मध्य में कहीं है । मार्कण्डेय पुराण- इसके दो संस्करण हैं : बी० जे० (१८६२) एवं वेंक० प्रेस के । प्रस्तुत लेखक ने दूसरे संस्करण का सहारा लिया है। दोनों संस्करणों में अध्यायों के श्लोकों की संख्याओं में अन्तर पाया जाता है । पाजिटर ने इस पुराण का अंग्रेजी अनुवाद किया है। बी० जे० के संस्करण में ४२ अध्यायों तक मार्कण्डेय को बात नहीं करते किन्तु शेष अध्यायों में वे ही प्रमुख वक्ता हैं। यह एक विचित्र पुराण है। प्रथम अध्याय महाभारत के विषय में जैमिनि द्वारा मार्कण्डेय से पूछे गये चार प्रश्नों के साथ आरम्भ होता है, यथा - ( १ ) निर्गुण वासुदेव मानव रूप क्यों धारण किया ? (२) द्रौपदी पाँच भाइयों की पत्नी क्योंकर बनी ? (३) बलराम ने ब्रह्महत्या का प्रायश्चित्त तीर्थयात्रा से क्यों किया (अपनी मृत्यु से क्यों नहीं किया) ? (४) द्रौपदी के पाँच अविवाहित पुत्र, जो स्वयं महान् योद्धा थे, इस प्रकार क्यों असहाय मार डाले गये, जब कि उनके सहायक स्वयं महान् योद्धा पाण्डव लोग थे । मार्कण्डेय उन्हें विन्ध्याचल के बुद्धिमान् पक्षियों के पास जाने की सम्मति देते हैं और इस प्रकार उत्तर चौथे अध्याय से सातवें अध्याय में दिये हुए हैं। यह समझ में नहीं आता कि जैमिनि, जो पुराणों में व्यास के शिष्य कहे गये हैं, व्यास के पास न जा कर मार्कण्डेय के पास प्रश्नोत्तर के लिए क्यों गये । इस पुराण का एक अंश देवीमाहात्म्य या सप्तशती कहलाता है ( वेंक० प्रेस संस्करण के अध्याय ७८-९० एवं बी० जे० संस्करण के अध्याय ८१ - ९३), जिसे आधुनिक विद्वान् क्षेपक मानते हैं। यदि यह क्षेपक भी है तब भी यह १० वीं शताब्दी के पूर्व का है, क्योंकि इसकी प्राचीनतम पाण्डुलिपि की तिथि ९९८ ई० है; यह छठी शती का भी हो सकता है।" मार्कण्डेयपुराण में व्रत, तीर्थयात्रा या शान्ति पर श्लोक नहीं हैं, किन्तु आश्रमों के कर्तव्यों, राजधर्म, श्राद्ध, नरकों, कर्मविपाक, सदाचार, योग (दत्तात्रेय द्वारा अलर्क को समझाया गया), कार्तवीर्य की कथाओं, उसके पौत्र कुवलयाश्व की एवं मदालसा की कथाओं, सृष्टि, मन्वन्तरों, भूगोल आदि पर बहुत-सी बातें दी हुई हैं। इसमें कोई साम्प्रदायिक दृष्टिकोण नहीं है । देवीमाहात्म्य को छोड़कर प्रार्थनाएँ एवं स्तोत्र नहीं के बराबर हैं। इसके एक-दूसरे से असम्बद्ध तीन भाग हैं, यथा-१ से ४२ अध्यायों तक ज्ञानी पक्षिगण वक्ता हैं, ४३ से अन्त तक मार्कण्डेय एवं शिष्य क्रोष्टुकि का संवाद चालू रहता है, केवल देवीमाहात्म्य में ऐसा नहीं है, जो कि एक स्वतन्त्र भाग है । कल्पतरु ने मोक्ष पर मार्कण्डेय के योग से १२० श्लोक उद्धृत किये हैं । इसी प्रकार इसके ब्रह्मचारिकाण्ड में ९, श्राद्ध पर १२, नियतकाल पर १७, गृहस्थ पर १९, राजधर्म पर ३ एवं व्यवहार पर एक श्लोक उद्धृत किया गया ११. सर्वमंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके । शरण्ये व्यम्बके गौरि नारायणि नमोस्तु ते ॥ मार्कण्डेय ८८ ९, देवीभागवत ७।३०।६६ । 'नारायणी' सुपार्श्व पर एक पीठ है। उपर्युक्त 'सर्वमंगलमांगल्ये' दधिमती - मारता नामक अभिलेख (जोधपुर में प्राप्त) में, जिसकी तिथि २८९ गुप्त-संवत् है, मिलता है ( एपि० इण्डि०, ११, पृ० २९९ ) । यह अभिलेख सन् ६०८ ई० का है, अतः यह स्पष्ट है कि देवीमाहात्म्य का उद्धृत श्लोक ६०० ई० से पुराना है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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