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स्त्र का इतिहास एवं हेमाद्रि की चर्चा करना अनावश्यक है, क्योंकि इनमें तो बहुत-से श्लोक उद्धृत हैं ही। इससे प्रकट है कि १००० ई० के बहुत पहले आज का संस्करण ज्यों-का-त्यों उपस्थित था। विष्णु, वायु, सम्भवतः भविष्य (१) एवं मार्कण्डेय को छोड़कर अन्य पुराणों के विषय में इससे अधिक नहीं कहा जा सकता।
प्रस्तुत लेखक के मत से मत्स्य १८ पुराणों में सब से प्राचीन एवं सुरक्षित पुराणों में एक है, इसकी तिथि २०० ई० एवं ४०० ई० के बीच में कहीं होगी। हाँ, यह सम्भव है कि यतस्ततः दो-एक श्लोक क्षेपक के रूप में इस पुराण में आ गये हों।
__मत्स्यपुराण में स्मृति-विषयक अध्यायों की तिथियों के लिए देखिए ह० (ए० बी० ओ० आर० आई०, जिल्द १७, पृ०१-३६ एवं पी० आर० एच० आर०,पृ०२६-५२) एवं प्रो० रामचन्द्र दीक्षितार (मत्स्यपुराण, ए स्टडी, मद्रास, १९३५, पृ० १-१४०) । अनिरुद्ध (लगभग ११६० ई०) की पितृदयिता (पृ० ९२) में स्वल्प-मत्स्यपुराण के चार श्लोक उद्धृत हैं और श्री मनोरञ्जन शास्त्री (जे०जी० जे० आर० आई०, जिल्द ९, पृ० १८३-१८८) ने इस पर एक - लेख लिखा है। तीर्थों एवं व्रतों के बारे में मत्स्य एवं पद्म के बहुत-से अध्याय एक-से हैं। शंकराचार्य ने पौराणिकों के जो श्लोक उद्धृत किये हैं वे मत्स्य के हैं।" तर्पण में जिन मुनियों को जल दिया जाता है उनमें (मत्स्य-प्रोक्त) कपिल, आसुरि, वोढु एवं पञ्चशिख भी हैं। सांख्यकारिका में इन चारों में प्रथम दो एवं अन्तिम सांख्य-सिद्धान्त के तीन महान् प्रवर्तक कहे गये हैं। इसमें वररुचि नाट्य-वेद के उद्भट विद्वान् कहे गये हैं। इस के २४वें अध्याय में आया है कि अप्सरा उर्वशी एवं उसकी सखी चित्रलेखा केशी नामक राक्षस द्वारा पकड़ ली गयी थीं, और पुरूरवा ने केशी को हराकर उर्वशी को छुड़ाया तथा इन्द्र ने पुरूरवा को उर्वशी दे दी। जब उर्वशी भरत द्वारा प्रणीत 'लक्ष्मीस्वयंवर' नामक नाटक में लक्ष्मी का अभिनय कर रही थी और पुरूरवा के प्रेम में आसक्त होने के कारण वह भरत द्वारा बताया गया अपना अनुकूल अभिनय भूल गयी, तब भरत ने उसे लता हो जाने का शाप दे दिया। यह कहना कठिन है कि मत्स्य को यह आख्यान कालिदास के 'विक्रमोर्वशीय' नामक नाटक से प्राप्त हुआ या कालिदास को मत्स्य से। नामों एवं घटनाओं के विषय में मत्स्य एवं कालिदास के कथानक एक-दूसरे से बहुत मिलते हैं। मत्स्य (२४।२४) में आया है कि केशी को हराने के लिए पुरूरवा को वायव्य-अस्त्र का प्रयोग करना पड़ा। नाटक में भी यही उल्लिखित है। अन्तर की बातें यों हैं-नाटक में लक्ष्मी-स्वयंवर का प्रणयन सरस्वती द्वारा किया हुआ माना गया है, किन्तु मत्स्य इस विषय में मौन है। मत्स्य में आया है कि भरत ने उर्वशी को लता बन जाने का शाप दिया, किन्तु नाटक इस विषय में कुछ नहीं कहता, उसमें इतना आया है कि वह लता के समान जो दुर्बल हो गयी उसका कारण कुमार (कार्तिकेय) थे। निर्णय इस बात पर निर्भर रहता है कि मत्स्य की तिथि किसी अन्य साक्ष्य से
१०. तथा चाहुः पौराणिका:--अचिन्त्याः खलु ये भावा न तांस्तर्केण योजयेत् । प्रकृतिभ्यः परं यच्च तदचिन्त्यस्य लक्षणम् ॥ शंकराचार्य, वे० सू० २।१।२७। यह मत्स्य (११३३६) है। यह श्लोक भीष्मपर्व (५।१२) में भी है, किन्तु यहाँ 'योजयेत् के स्थान पर साषयेत् है। पौराणिक (पुराणमधीते इति पौराणिकः, जैसा कि पाणिनि ४।२।५९ का कहना है) शब्द से निर्देशित होता है कि आचार्य ने पुराण की ओर संकेत किया है न कि महाभारत की ओर। 'कपिलश्चासुरिश्चव बोढः पञ्चशिखस्तया। सर्वे ते तृप्तिमायान्तु मद्दत्तनाम्बुनाखिलाः॥' मत्स्य १०२।१८ (स्मृतिच० १११९३ द्वारा उवृत)। अन्त में सांख्यकारिका का कथन है : 'एतत्पवित्रमयं मुनिरासुरये अनुकम्पया प्रददौ। आसुरिरपि पञ्चशिखाय तेन च बहुधा कृतं तन्त्रम् ॥' दोग्धा वररुचिश्चैव नाट्यवेदस्य पारगः। मत्स्य० २५, लक्ष्मीस्वयंवरं नाम भरतेन प्रवर्तितम् । मत्स्य० २४।२८।
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