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________________ ४१८ धर्मशास्त्र का इतिहास ओर भी संकेत है, नाट्य के ३० अलंकारों एवं इन अलंकारों के चार उपयोगों (६२।३२ ) की ओर निर्देश है । " इस पुराण को चौथी एवं छठी शतियों के बीच में कहीं रखा जा सकता है। विवेचन के लिए देखिए पाजिटर (ए० आई० एच्० टी०, पृ० २३, ७७) एवं ह० ( पी० आर० एच्० आर०, पृ० १७/१९ ) । ब्रह्माण्ड में व्युत्पत्ति-सम्बन्धी अधिक अभिरुचि प्रकट हुई है, यथा -- वैश्य एवं शूद्र ( २२७ १५७ - १५८), देव, मनुष्य-प्रजा, राक्षस एवं यक्ष (२८) ९-१०, २०, ३४), त्र्यम्बक एवं रुद्र ( २।९ ३-४ एवं ७८), राजन् ( २।२९।६४), वसुधा, मेदिनी एवं पृथिवी (२|३७| १-३), अत्रि, वसिष्ठ, पुलह एवं पुलस्त्य ( ३।१।४४-४६), कुबेर ( ३।८।४४-४५) आदि शब्दों की व्युत्पत्तियाँ । बृहद्धर्मपुराण ( उप० ) । देखिए ह० ( गोहाटी यूनि० का जर्नल, स्टडीज़ आदि, जिल्द १, पृ० ११५ एवं २७७) । यह १३वीं या १४वीं शती में बंगाल में प्रणीत हुआ । भविष्यपुराण - मत्स्य (५३।३०-३१), अग्नि० ( २७२ । १२) एवं नारदीय (१।१००) में उल्लिखित बातें वेंक० प्रेस द्वारा प्रकाशित भविष्य से नहीं मिलतीं। यह चार पर्वों में विभाजित है, यथा -- ब्राह्म, मध्यम, प्रतिसर्ग एवं उत्तर । केवल ब्राह्म पर्व की तिथि प्राचीन है । प्रतिसर्ग पर्व में आधुनिक प्रक्षेप भी हैं, यथा--आदम एवं ईव, पृथ्वीराज एवं संयोगिता, देहली के म्लेच्छों, रामानुज, कबीर, नरश्री (नरसी ? ), नानक, चैतन्य, नित्यानन्द, रैदास, मध्वाचार्य, मट्टोज आदि की कहानियाँ । बल्लालसेन ने भविष्योत्तर का बहिष्कार कर दिया था, यद्यपि वह उसके to में पर्याप्त प्रसिद्ध था। अपरार्क ने दान के विषय में भविष्योत्तर से १६० श्लोक उद्धृत किये हैं। स्मृतिच० ने एक श्लोक लिया है ( भाग १, पृ० २०३ ) । अतः भविष्योत्तर को हम १००० ई० के आगे नहीं उतार सकते | कल्पतरु ने सैकड़ों श्लोक उधार लिये हैं । मिताक्षरा ( याज्ञ० ३।६ ) ने सर्प के काटने पर सर्प की स्वर्ण मूर्ति के दान की चर्चा में भविष्य को उद्धृत किया है। अपरार्क ने १२५ श्लोक लिये हैं, जिनमें लगभग ९० श्लोक प्रायश्चित्तों से सम्बन्धित हैं । एक बात द्रष्टव्य है कि अपरार्क द्वारा लिये गये भविष्य के उद्धरणों में अंगिरा, गौतम, पराशर, मनु, वसिष्ठ एवं शंख के मत उद्धृत हैं । अपरार्क के उद्धरणों के कुछ वक्तव्यों से आज के प्रचलित भविष्य की तिथि पर प्रकाश पड़ता है । इसने आठ व्याकरणों की ओर भी निर्देश किया है, यथा--- ब्राह्म, ऐन्द्र, याम्य, रौद्र, वायव्य, वारुण, सावित्र एवं वैष्णव । किन्तु प्रसिद्ध आठ व्याकरणों से यह तालिका भिन्न है ( केवल ऐन्द्र मिलता है ) । इसमें विदेशी शब्द 'आर' (मंगल) एवं 'कोण (शनि) मिलते हैं और ऐसा आया है कि शिव, पार्वती, गणेश, सूर्य आदि के समान इन ग्रहों की पूजा भी होनी चाहिए। भविष्य में पराशरस्मृति की कुछ व्यवस्थाओं की ओर भी संकेत है। इससे प्रकट होता है कि इस पुराण को ६ठी या ७वीं शती के पूर्व नहीं रखा जाना चाहिए । देखिए ह० (इण्डि० कल्चर, जिल्द ३, पृ० २२३-२२९ एवं पी० आर० एच्० आर०, पृ० १६७-१७३ जहाँ भविष्योत्तर की चर्चा है। वायु ( ९९।२६७) में जिस भविष्य ( तान् सर्वान् कीर्तयिष्यामि भविष्ये पठितान् नृपान् । तेभ्यः परे च ये चान्ये उत्पत्स्यन्ते महीक्षितः ॥ ) की चर्चा है वह आप० ध० सू० में उल्लिखित प्राचीन भविष्यत् है । वराहपुराण ( १७७।३४ एवं ५१ ) ने दो बार स्पष्ट रूप से भविष्यत् पुराण की चर्चा की है, यह दूसरा संकेत महत्त्वपूर्ण है । ऐसा प्रकट होता है कि भविष्य नामक पुराण साम्ब द्वारा संशोधित हुआ था और साम्ब ने सूर्य की एक प्रतिमा स्थापित की थी । ८. देखिए नाट्यशास्त्र ३२०४८४ 'गान्धर्वमेतत्कथितं मया हि पूर्वं यदुक्तं त्विह नारदेन ।' ९. भविष्यत्पुराणमिति ख्यातं कृत्वा पुनर्नवम् । साम्बः सूर्यप्रतिष्ठां च कारयामास तत्ववित् ॥ वराह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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