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________________ पुराणों एवं उपपुराफों पर संक्षिप्त टिप्पणियाँ ४१७ ब्रह्मवैवर्त-यह एक विशद ग्रन्थ है जो आनन्दाश्रम (पूना) द्वारा चार खण्डों में प्रकाशित हुआ है, यथाब्रह्म, प्रकृति, गणपति एवं कृष्णजन्म। इसमें धर्मशास्त्र-विषयक बातें भी हैं, यथा--जातियाँ, दान, व्रत, नरक, वर्णाश्रमधर्म, स्त्री आदि। स्मृतिच०, हेमाद्रि आदि ने इस पुराण से बहुत-से उद्धरण लिये हैं, जो प्रकाशित पुराण में नहीं पाये जाते। विल्सन ने विष्णुपुराण की भूमिका में लिखते हुए ऐसा कहा है कि ब्रह्मवैवर्त को पुराण नहीं कहना चाहिए। देखिए ह० (ए० बी० ओ० आर० आई०, जिल्द १९, पृ०७५-७६ एवं पुराणिक रेकर्ड आदि, पृ० १६६ १६७)। ब्रह्माण्ड (वेंक० प्रेस द्वारा प्रकाशित-यह चार पादों में विभाजित है, यथा-प्रक्रिया (५ अध्याय), अनुषंग (३३ अ०), उपोद्घात (७४ अ०) एवं उपसंहार (४ अ०) और अन्त में ४० अध्यायों में ललितोपाख्यान है। कूर्म में स्पष्ट रूप से आया है कि नैमिषारण्य में एक सत्र में प्रवृत्त ऋषियों को ब्रह्माण्ड पुराण सुनाया गया। स्कन्द (प्रभासखण्ड २।८-९) में आया है कि आरम्भ में केवल एक पुराण था, जिसका नाम ब्रह्माण्ड था और उसमें एक सौ करोड श्लोक थे जो आगे चल कर अठारह भागों में विभक्त हो गये। सम्भवतः इसका प्रणयन गोदावरी के उद्गम के पास कहीं हुआ था, क्योंकि इममें आया है कि वह स्थान, जो सह्य पर्वत की उत्तरी चोटियों के पास है और जहाँ से गोदावरी प्रसूत होती है, विश्व में सबसे सुन्दर एवं रमणीक है और वहाँ परशुराम द्वारा स्थापित गोवर्धन नाम की राजधानी थी। इसके प्रथम दो पादों में सृष्टि, भारतवर्ष एवं पृथिवी का भूगोल, मन्वन्तरों, व्यास के शिष्यों, वेद की शाखाओं के विभाजन आदि का उल्लेख है। तीसरा खण्ड (या पाद) सबसे लम्बा है, इसमें वैवस्वत मन्वन्तर एवं देवों, असुरों, गन्धर्वो, ऋषियों तथा उनकी सन्तानों की सृष्टि के विषय में वर्णन करने के उपरान्त श्राद्ध के स्वरूपों का विशद उल्लेख है; परशुराम की तपस्याओं, उनके द्वारा अस्त्र-शस्त्र प्राप्ति, कार्तवीर्य एवं क्षत्रियों की हत्या, उनके रक्त से पाँच तालाबों के भरने का विशद वर्णन है। इसके उपरान्त सगर का कथानक, भगीरथ द्वारा गंगा के उतारने की कथा, समुद्र से गोकर्ण की रक्षा, सूर्पारक की कथा, सूर्य एवं चन्द्र के वंशों की कथा आदि वर्णित हैं। इसके उपरान्त धन्वन्तरि द्वारा भारद्वाज से आयुर्वेद के आठों अंगों के ज्ञान की प्राप्ति का उल्लेख है। चौथे खण्ड (पाद) में इसमें मनुओं, ज्ञान, कर्म, मोक्ष आदि का उल्लेख है। ब्रह्माण्ड प्राचीनतम पुराणों में परिगणित है और इसके सैकड़ों श्लोक वायु में भी पाये जाते हैं। मिताक्षरा (याज्ञ० ३।३०९) ने ब्रह्माण्ड का श्लोक उद्धृत कर कहा है कि यदि कोई व्यक्ति शैवों, पाशुपतों, लोकायतिकों एवं नास्तिकों, निषिद्ध मार्ग पर जाने वाले तीनों वर्गों के लोगों एवं शूद्रों का स्पर्श करता है तो उसे वस्त्र सहित जल में प्रवेश करना चाहिए। अपरार्क ने इससे ७५ श्लोक लिये हैं जिनमें ४३ श्राद्ध-सम्बन्धी हैं। स्मृतिचन्द्रिका ने बहुत-से उद्धरण लिये हैं। इन बातों से प्रकट होता है कि इस पुराण को मत्स्य के समान बहुत प्रारम्भिक काल का नहीं कहा जा सकता। इसमें एक लम्बा सामासिक प्रयोग आया है (३।४८।८ एवं २०), भीमसेन एवं नारद का उल्लेख संगीतशास्त्र-लेखकों में हुआ है (३।६११४२-४३), गान्धर्व पर एक अध्याय है (३।६२), पहले के आचार्यों की ५. अत्र पूर्व स भगवानुषीणां सत्रमासताम् । स वै प्रोवाच ब्रह्माण्डं पुराणं ब्रह्मभावितम् ॥ कूर्म (२॥४३॥१४)। ६. शैवान् पाशुपतान् स्पृष्ट्वा लोकायतिकनास्तिकान् । विकर्मस्थान् विजान् शूद्रान् सवासा जलमाविशेत् ॥ मिता० (याज्ञ० ३।३०९), स्मृतिच० (१, पृ० ११८)।। ७. तस्याग्रेसरसन्ययूथचरणप्रक्षण्णशलोच्चयक्षोदापूरितनिम्नभागमवनीपालस्य संयास्यतः। ब्रह्माण्ड पुराण (३।४८०८)। ५३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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