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________________ अध्याय २३ पुराणों एवं उपपुराणों पर संक्षिप्त टिप्पणियाँ [ संकेत : अकारादि क्रम के अनुसार यहाँ पुराणों का विन्यास किया जा रहा है। प्रो० हज्रा को ह० एवं उपपुराण को उप० लिखा जायगा । प्रो० हज्जा के ग्रन्थ को हम 'स्टडीज' कहेंगे, साथ ही उसे पी० आर० एच० आर० भी कहेंगे ] अग्निपुराण - 'वर्तमान अग्निपुराण' (ह०), इण्डियन हिस्ट्रारिकल क्वार्टरली, जिल्द १२, पृष्ठ ६८३६९१ ; 'शुद्ध आग्नेय, उपनाम वह्निपुराण' का अध्ययन (ह० द्वारा 'आवर हेरिटेज' में जिल्द १, पृ० २०९-२४५ एवं जिल्द २, भाग १, पृ० ७६ - १०९ ); 'शुद्ध आग्नेय पुराण की खोज' ह० द्वारा ' ( जे० ओ० आई०, बड़ोदा, जिल्द ५, १९५६,पृ० ४११-४१६, इसमें यह व्यक्त किया गया है कि आनन्दाश्रम प्रेस द्वारा प्रकाशित आज का अग्निपुराण मौलिक नहीं है, वास्तविक आग्नेय या वह्नि अभी तक अप्रकाशित है ) ; दानसागर ( पृ० ७, श्लोक १३ ) में आग्नेय का उल्लेख है । जैसा कि अधिकांश पुराणों में पाया जाता है, आग्नेय पुराण ने यह कहकर अपनी महत्ता गायी है कि ( २७२ । १३ एवं १७ ) इस महापुराण में हरि विभिन्न ज्ञानों के रूप में निवास करते हैं और आग्नेय एक ऐसा महापुराण है जिसमें वेद एवं सभी विद्याएँ पायी जाती हैं । आदिपुराण ( उप० ) - भारतीय विद्या, जर्नल, बम्बई (जिल्द ६, १९४५, पृ० ६०-७३ ) । इसके विषय में प्रो० हजा की मान्यता है कि इसके प्रारम्भिक एवं पश्चात्कालीन दो पाठ हैं। वायु० ( १०४।७) ने ब्राह्म० के सहित १८ पुराणों में एक आदिक का उल्लेख किया है। अल्बरूनी ( जिसने पुराणों एवं उपपुराणों को एक में मिला दिया है) ने एक आदिपुराण का नाम लिया है। वेंक० प्रेस ने २९ अध्यायों में एक आदि पुराण मुद्रित किया है। प्रो० हजा का कथन है कि एक प्राचीन आदिपुराण भी था, जो आज उपलब्ध नहीं है। उनके अनुसार इसकी तिथि १२०४ एवं १५२५ ई० के बीच में कहीं है ( स्टडीज़, पृ० २८८ ) । आदि एवं आद्य दोनों का अर्थ एक ही है । किन्तु कुल्लूक (मनु २।५४) ने आदि से कुछ श्लोक उद्धृत किये हैं जो गृहस्थरत्नाकर ( पृ० ३१४ ) द्वारा ब्राह्म के बताये गये हैं । निबन्धों ने आदि एवं आदित्यपुराण में सम्भ्रमता उत्पन्न कर दी है। देखिए ह० ( स्टडीज़, भाग १, पृ० ३०२-३०३) । प्रकाशित प्रति पश्चात्कालीन है, क्योंकि लक्ष्मीधर एवं अपरार्क द्वारा उद्धृत श्लोक इसमें नहीं पाये जाते (देखिए स्टडीज़, जिल्द १, पृ० २८६-२८९) । आदित्यपुराण - मत्स्य (५३।६२ ) द्वारा उप पु० वर्णित, अल्बरूनी (सचौ १, पृ० १३०, २२९, २२८ ) द्वारा उल्लिखित ; कृत्यकल्पतरु द्वारा राजधर्मं (लगभग २ श्लोक ), दान ( लगभग १२५ श्लोक ), श्राद्ध ( लगभग २० श्लोक ) एवं व्रत ( लगभग २२ श्लोक ) पर उद्धृत । स्मृतिचन्द्रिका ने आह्निक एवं श्राद्ध पर आदि एवं आदित्य के श्लोक उद्धृत किये हैं एवं दोनों को पृथक्-पृथक् 'शौच' पर उद्धृत किया है ( भाग १, पृ० ९४ ) । यही बात अपरार्क एवं दानसागर में भी पायी जाती है; दोनों ने आदि एवं आदित्य के उद्धरण लिये हैं । एकाम्र- (उड़ीसा का एक ग्रन्थ) । ह० ( पूना ओरियण्टलिस्ट, जिल्द १६, पृ० ७०-७६ एवं स्टडीज़, भाग १, पृ० ३४१ ) ने यह १० वीं या ११ वीं शती की कृति मानी है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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