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________________ ४१० धर्मशास्त्र का इतिहास ग्रन्थ को वर्तमान में ('तन्यते') उल्लिखित किया है, जिससे प्रकट होता है कि कामधेनु का प्रणयन कल्पतरु के कुछ वर्ष पहले हो चुका था। प्रकाश, पारिजात एवं कामधेनु की प्रतिलिपियाँ नहीं प्राप्त हैं, अतः उनके विस्तार आदि के विषय में कुछ कहना असम्भव है, किन्तु स्मृतिमञ्जरी के प्रायश्चित्त नामक विभाग की पाण्डुलिपि के अन्त के सारसंक्षेप से प्रकट होता है कि वह पर्याप्त लम्बी रही होगी और पश्चात्कालीन कृत्यकल्पतरु की विधियों के अनुसार ही प्रणीत हुई होगी। क्योंकि इसका आरम्भ परिभाषाखण्ड एवं ब्रह्मचारि-विभाग से हुआ था और तब गृहस्थधर्मों, दान, शुद्धि एवं आशौच, श्राद्ध का वर्णन किया गया और फिर वानप्रस्थ एवं प्रवज्या (कल्पतरु के मोक्षकाण्ड के समान) तथा अन्त में प्रायश्चित्तों पर लिखा गया। कल्पतरु से पूर्व रचित ये ग्रन्थ विस्तार एवं आकार में लक्ष्मीधर की कृति से छोटे थे, किन्तु हेमाद्रि, चण्डेश्वर, मदनरत्न, वीरमित्रोदय एवं नीलकण्ठ के मयूखों की प्रसिद्धि के समक्ष लक्ष्मीधर की कृति भी मन्द पड़ गयी। कामधेनु एवं सम्भवतः स्मृतिमञ्जरी के पूर्व ही भोज (११ वीं शती के दूसरे चरण में) ने भुजबल एवं राजमार्तण्ड जैसे कई ग्रन्थों का प्रणयन किया (या कराया); जिनमें पुंसवन से विवाह तक के संस्कारों की तथा व्रतों, यात्रा, शान्तियों, प्रतिष्ठा से सम्बन्धित ज्योतिषीय आवश्यकताओं पर प्रकाश डाला गया है (देखिए प्रस्तुत लेखक का लेख, जे० ओ० आर०, मद्रास, जिल्द २३, १९५३-५४, पृ० ९४-१२७, जहाँ भोज के पाँच ग्रन्थों पर विवेचन उपस्थित किया गया है)। तो ऐसी स्थिति में कृत्यकल्पतरु में कोई नवीनता नहीं थी, हाँ, वह विस्तार में बड़ा था, विषयों के तार्किक विवेचन और महाकाव्यों तथा पुराणों से उद्धरण लेने में प्रमुखता रखता था। मिताक्षरा में पुराणों के उद्धरण कम हैं, किन्तु अपरार्क एवं कल्पतरु बहुत उद्धरण देते हैं। कल्पतरु ने लगभग ६०० श्लोक देवीपुराण से और २०० से अधिक श्लोक कालिका, आदित्यपुराण, नन्दिपुराण एवं नरसिंहपुराण नामक उपपुराणों में प्रत्येक से उद्धृत किये हैं। किन्तु उसने विष्णुधर्मोत्तर से एक भी श्लोक नहीं लिया है। कल्पतरु ने इसे सम्भवतः प्रामाणिक नहीं माना है, यद्यपि अपरार्क एवं दानसागर ने इसका कुछ उपयोग अवश्य किया है। विशद कल्पतरु के विद्वान् सम्पादक प्रो० आयंगर ने कठिन परिश्रम पूर्वक इसके कतिपय श्लोकों को पुराणों के उद्धरणों के रूप में सिद्ध करके विद्वानों का कार्य सरल कर दिया है, किन्तु प्रो० आयंगर की सभी बातें स्वीकार्य नहीं हो सकतीं। उन्होंने यह प्रदर्शित किया है कि हेमाद्रि, चण्डेश्वर एवं मित्र मिश्र ने किस प्रकार कल्पतरु को यथास्थान ज्यों-का-त्यों उतार लिया है। यह असम्भव नहीं है कि स्वयं कल्पतरु ने अपने पूर्ववर्ती पारिजात, प्रकाश, स्मृतिमञ्जरी एवं कामधेनु से बहुत-कुछ उधार लिया हो। किन्तु वे ग्रन्थ आज प्राप्त नहीं हैं, अतः इस विषय में सप्रमाण कुछ कहना सम्भव नहीं है। प्रस्तुत लेखक ने राजमार्तण्ड (जिसमें १४६२ श्लोक हैं) के तिथियों, व्रतों एवं उत्सवों से सम्बन्धित २८६ श्लोकों का सम्पादन किया है (ए० बी० ओ० आर० आई०, जिल्द ३६, भाग ३-४, १९५६, पृ० ३०६-३९९)। इसमें इन्द्रध्वजोत्थापन जैसे कतिपय व्रतों एवं उत्सवों का उल्लेख है और ग्रन्थ कल्पतरु से ७५ वर्ष पुराना है। कल्पतरु ने भोज के विषय में मौन साध लिया है, किन्तु कामधेनु, गोविन्दराज, प्रकाश एवं हलायुध का उल्लेख किया है, कहीं भी राजमार्तण्ड में वर्णित व्रतों का उल्लेख नहीं है। लगता है, लक्ष्मीधर ने यह नहीं चाहा कि उनके व्रत-सम्बन्धी वर्णन एवं भोज के वर्णन में किसी प्रकार की तुलना की जाय। पुराणों की तिथियों के विषय में सचौ द्वारा अनुवादित अल्बरूनी का ग्रन्थ कुछ प्रकाश देता है। पृ० १३० में आया है कि उसने (अल्बरूनी ने) निम्नोक्त पुराणों के विषय में सुना है-आदि, मत्स्य, कूर्म, वराह, नारसिंह, वामन, वायु, नन्द, स्कन्द, आदित्य, सोम, साम्ब, ब्रह्माण्ड, मार्कण्डेय, तार्क्ष्य (अर्थात् गरुड़), विष्णु, ब्रह्म एवं भविष्य । इस सूची से स्पष्ट है कि इसमें पुराण एवं उपपुराण दोनों सम्मिलित हैं। अल्बरूनी ने यह भी कहा है कि उसने मत्स्य, आदित्य एवं वायु के कुछ अंश मात्र देखे हैं। पृ० १३१ (सचौ के अनुवाद का पृष्ठ) पर एक For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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