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पौराणिक अनुशीलनकर्ताओं की रचनाएँ ई०; विष्णुधर्मोत्तरपुराण, ४००-५०० ई० ; नरसिंहपुराण, ४००-५०० ई० । प्रो० हजा ने इन तिथियों के निर्धारण में जो तर्क दिये हैं, वे सभी निरर्थक एवं लचर हैं। हम इस विवेचन को यहीं छोड़ते हैं।
पुराणों के विषय में बहुत-से ग्रन्थ, अनुवाद एवं लेख प्रकाशित हुए हैं। हम यहाँ कुछ का उल्लेख कर रहे हैं। इयोजीन बर्नाफ ने भागवत पुराण को फ्रांसीसी भाषा में सन् १८४० ई० से लेकर कई वर्षों में ५ भागों में अनूदित किया। विष्णु एवं मार्कण्डेय का अनुवाद क्रम से एच० एच् विल्सन एवं पार्जिटर ने किया। प्रो० किर्फेल ने 'पुराण पञ्चलक्षण' (१९२७, बॉन) की भूमिका लिखी (अनुवाद, जर्नल, श्री वेंकटेश इंस्टीच्यूट, जिल्द ७, पृ० ८१-१२१ एवं जिल्द ८, पृ० ९-३३); किर्फेल (फेस्ट-क्रिफ्ट जैकोबी, पृ० २९८-३१६) का लेख; के० पी० जायसवाल का 'क्रॉनालॉजिकल टेबुल्स इन पुराणिक क्रॉनिकल्स' (जे० बी० ओ० आर० एस०, जिल्द ३,पृ० २४६-२६२); 'पुराणज एण्ड इण्डस आर्यस' एवं 'स्टडीज़ आव ऐंश्येण्ट जिआग्रफी इन अग्निपुराण' (इण्डियन हिस्टॉरिकल क्वार्टरली, १९३३, जिल्द १८, पृ० ४६१ एवं ४७०) प्रो० रामचन्द्र दीक्षितार का वायु एवं मत्स्य का अध्ययन तथा पुराणों की अनुक्रमणिका, तीन जिल्दों में; रुबेन का 'पुराणिक लाइन आव हीरोज़' (जे० आर० ए० एस्, १९४१, पृ० २४७-२५६ एवं पृ० ३३७-३५०); जे० ए० एस० बी० (१९३८, जिल्द ४, लेख १५, पृ० ३९३); 'पुराणज आन गुप्तज़' (इण्डियन हिस्टॉरिकल क्वार्टरली, जिल्द २१, पृ० १४१); डा० डी० आर० पाटिल (बी०डी० सी० आर० आई०, जिल्द २, पृ० १४८-१६५); एच० सी० रायचौधुरी (प्रोसीडिंग, दसवीं ओरिएण्टल कान्फ्रेंस, पृ० ३९०); डा० बी० सी० मजूमदार का 'ऑरिजिन एण्ड कैरेक्टर आव पुराण लिटरेचर' (आशुतोष मुकर्जी रजत जयन्ती जिल्द ३, ओरिएण्टैलिया, भाग २, पृ० ९-३०); इण्डियन हिस्टारिकल क्वार्टरली (जिल्द २२, पृ० २२१२२३) के पृष्ठ ३० का श्लोक ; पेनुकोण्डा दान-पत्र (एपि० इण्डिका, जिल्द १४, पृ० ३३८) जहाँ गंगराज माधव द्वितीय को शास्त्रों, इतिहास एवं पुराणों का सार-संक्षेप-ज्ञाता कहा गया है। पुराणों के अध्ययन की चर्चा सन् ५७८ ई० (एपि० इण्डिका, जिल्द २८, पृ० ५९) में हुई है।
___अब आगे प्रस्तुत लेखक ने प्रकाशित पुराणों एवं निबन्धों के आधार पर सभी पुराणों एवं उपपुराणों पर अपनी टिप्पणियाँ दी हैं। इसका विश्वास है कि सबसे प्राचीन निबन्ध जो अब तक प्रकाश में आ चुके हैं वे लगभग ११०० ई० के पूर्व के नहीं हो सकते। यद्यपि विद्वानों में मतभेद है, तब भी मिताक्षरा, कृत्यकल्पतरु (जो धर्मशास्त्र के कतिपय विषयों पर एक सामान्य निबन्ध है) एवं अपरार्क का ग्रन्थ (जो याज्ञवल्क्यस्मृति की टीका के रूप में है, किन्तु है निबन्ध ही) ऐसे प्रकाशित निबन्ध हैं जो कम या अधिक रूप में समकालीन ही कहे जा सकते हैं और उनके प्रणयन का काल ११०० से ११४० ई० के बीच माना जा सकता है। कृत्यकल्पतरु ने व्यवहार की चर्चा करते हुए प्रकाश, हलायुध, कामधेनु एवं पारिजात का उल्लेख किया है। इतना ही नहीं, कृत्यकल्पतरु (नियत०, पृ० २८०) ने स्मृतिमञ्जरी (गोविन्दराज लिखित) द्वारा परारीक (आ० घ० सू० १।१७।२६ में) की व्याख्या उपस्थित की है और श्राद्ध पर (पृ० ४६ एवं २५९) भी ऐसा करते हुए संकेत किया है। इस महाग्रन्थ के प्रथम खण्ड में हमने देख लिया है कि प्रकाश, पारिजात, स्मृतिमञ्जरी प्रसिद्ध निबन्ध हैं, इसी प्रकार गोपाल कृत कामधेनु भी निबन्ध ही है। गोपाल लक्ष्मीधर के मित्र थे, किन्तु अपने ग्रन्थ में लक्ष्मीधर ने.गोपाल को भूत काल ('चक्रे') एवं अपने
४६. श्लोक यह है : 'रामायणपुराणाभ्यामशेषं भारतं ददत् । अकृतान्वहमच्छेद्यां स च तद्वाचनस्थितिम् ॥' देखिए इ० हिस्टा० क्वा०, जिल्द २२, पृ० २२१-२२३। इसमें आया है कि राजा ने भारत, रामायण एवं पुराणों के दैनिक वाचन की व्यवस्था की थी। यह श्लोक ईसा के उपरान्त छठी शती का है।
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