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________________ धर्मशास्त्र का इतिहास समय के प्रिय ग्रन्थ विष्णु रहस्य एवं शिवरहस्य को अपने ग्रन्थ में कोई स्थान नहीं दिया है, क्योंकि वे केवल संग्रह मात्र हैं। भविष्योत्तर (पुराण) को भी जो लोगों द्वारा व्यवहृत था और कट्टर सिद्धान्तों के विरोध में नहीं था, दानसागर में स्थान नहीं मिला है, क्योंकि इसकी प्रामाणिकता सिद्ध नहीं थी । निम्नलिखित ग्रन्थों का भी दानसागर में कतिपय कारणों से उपयोग नहीं हुआ है, तीन खण्ड, अर्थात् स्कन्दपुराण के पौण्ड्र, रेवा एवं अवन्ति की कथाएँ, तार्क्ष्य (गरुड़) पुराण, अपर ब्रह्म एवं आग्नेय पुराण, २३००० श्लोकों वाला विष्णुपुराण, दूसरा ( अपर) लिंगपुराण ( जिसमें ६००० श्लोक हैं; ये सभी छोड़ दिये गये हैं । इनके बहिष्कार के कारण नीचे पाद-टिप्पणी में बतला दिये गये हैं । ४०८ दानसागर में बल्लालसेन ने जो बातें कही हैं उनसे कुछ महत्त्वपूर्ण निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। मिताक्षरा, कृत्यकल्पतरु एवं अपरार्क की टीका के उपरान्त दानसागर ही उन निबन्धों में आता है जिनकी तिथियाँ अपेक्षाकृ निश्चित -सी हैं । दानसागर में मिताक्षर, कृत्यकल्पतरु एवं अपरार्क का उल्लेख नहीं है । पुराण - सम्बन्धी उल्लेखों में प्रमुख ये हैं-- दानसागर ने वायु एवं शिव को प्रमुख पुराणों ( महापुराणों) में गिना है, लिंग, ब्राह्म, आग्नेय एवं विष्णु नाम के दो-दो पुराण हैं; ये चारों नाम वाले अन्य पुराण प्रामाणिक नहीं हैं; तान्त्रिक सम्प्रदाय की विधियाँ घृणास्पद हैं, अतः देवीपुराण एवं भविष्य के कुछ भाग बहिष्कृत हैं; स्कन्द के तीन खण्ड उपयोगी नहीं हैं; गरुड़ पुराण प्रामाणिक नहीं है । यहाँ यह कहना समीचीन होगा कि कूर्म ( १।१।१७-२० ) के मत से स्कन्द, वामन, ब्रह्माण्ड एवं नारदीय जैसे कुछ उपपुराण महापुराण के ही नाम धारण करते हैं । कल्पतरु. (ब्रह्मचारिखण्ड, पृ० २५) द्वारा उद्धृत भविष्यपुराण से लिये गये एक वक्तव्य पर प्रो० हजा ने विश्वास किया है, जहाँ ऐसा आया है कि 'जय' नामक उपाधि निम्नोक्त ग्रन्थों के लिए लगायी गयी है, यथा-- १८ पुराण, रामायण, विष्णुवर्मादिशास्त्र, शिवधर्म, महाभारत, सौरधर्म एवं मानवधर्म (मनुस्मृति ? ) । विष्णुधर्मपुराण की चर्चा हम आगे करेंगे। किन्तु इस कथन की प्रामाणिकता एवं प्राचीनता के विषय में गहरा सन्देह है। यह कल्पतरु में उद्धृत है, अतः यह १०५० ई० से पूर्व का है । १८ पुराणों की महत्ता गाने के लिए 'जय' का अर्थ विस्तारित किया गया है। उद्योगपर्व ( १३६।१८-१९ ) एवं स्वर्गारोहणिक ( ५।४९ एवं ५१ ) में 'जय' का प्रयोग केवल महाभारत के लिए हुआ है। अत: जब सभी पुराण प्रणीत हो चुके थे तब, अर्थात् नवीं शती के उपरान्त ही उपर्युक्त वक्तव्य सम्मिलित किया गया होगा । 'विष्णुधर्मादिशास्त्राणि' बहुवचन में है, इससे स्पष्ट है कि कई ऐसे ग्रन्थ थे जो विष्णुधर्म से सम्बन्धित थे। स्वयं कल्पतरु से प्रकट है कि 'जय' वाला श्लोक कुछ लोगों द्वारा 'स्मृति' के समान उल्लिखित है । अतः इसे भविष्य का श्लोक मानना संदेहास्पद है । बल्लालसेन ने दानों पर केवल आठ उपपुराणों का उल्लेख किया है (जिनमें मत्स्य द्वारा उल्लिखित चार भी सम्मिलित हैं ) । प्रो० हजा ने उपपुराणों के विषय में जो कार्य किया है वह बहुत ही महत्त्वपूर्ण है, किन्तु उन्होंने साम्ब, विष्णुधर्म, विष्णुधर्मोत्तर, नरसिंहपुराण आदि प्रमुख उपपुराणों की जो तिथियाँ निर्धारित की हैं, वे प्रस्तुत लेखक मान्य नहीं हो सकतीं। उनकी तिथियाँ यों हैं -- साम्ब, ५०० एवं ८०० ई० के मध्य ; विष्णुधर्मपुराण, २००-३०० देखिए भविष्य (१।२१५।१-६), जहाँ मूल मन्त्र एवं उसके अनुबंध, जिनमें कुछ ये हैं : 'ओं विटिविटि शिरः, ओं ज्वालने इति शिखा, ओं सहस्ररश्मये फट् कवचम्, ओं सर्वतेजोधिपतये फट् अस्त्रम् । ओं सहस्रकिरणोज्ज्वलाय फट् ऊर्ध्वबन्धः । ' ( कल्पतरु, व्रत, पृ० १९९) । यह द्रष्टव्य है कि अग्निपुराण (२७२०३ ) ने ऐसे विष्णुपुराण की चर्चा की है जिसमें २३,००० श्लोक थे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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