________________
बल्लालसेन - कृत दानसागर के पौराणिक उल्लेख
( कुल आठ ) नामक शास्त्र का भी उल्लेख किया है। उन्होंने लिखा है कि अपने ग्रन्थ में हमने १३७५ दानों पर इन सभी ग्रन्थों का सहारा लिया है। उन्होंने कुछ ऐसे पुराणों एवं उपपुराणों का उल्लेख किया है जिन्हें उन्होंने कुछ कारणों से दान-सम्बन्धी अपने ग्रन्थ में छोड़ दिया है ।
दानसागर के कुछ वक्तव्य बड़े महत्त्वपूर्ण हैं ।" बल्लालसेन का कहना है कि हमने भागवत, ब्रह्माण्ड एवं नारदीय की बातें नहीं दी हैं, क्योंकि इनमें दानों का वर्णन नहीं है। अपने ग्रन्थ में उन्होंने लिंगपुराण का सहारा नहीं लिया, क्योंकि यह बड़ा होते हुए भी मत्स्यपुराण में घोषित महादानों में कोई अन्य बात नहीं जोड़ता । उन्होंने भविष्यपुराण को केवल सप्तमी की व्रतविधियों तक अपने काम का माना है, क्योंकि अष्टमी एवं नवमी की व्रतविधियाँ तान्त्रिकों, बौद्ध आदि पाषण्डियों की मान्यताओं एवं दृष्टिकोणों से रंगायित हैं ।" बल्लालसेन ने अपने
४४. बृहदपि लिंगपुराणं मत्स्यपुरोदितैर्महादानैः । अवधार्य तुल्यसारं दाननिबन्धेत्र न निबद्धम् ॥ ( ५८) । सप्तम्यैव पुराणं भविष्यमपि संगृहीतमतियत्नात् । त्यक्त्वाष्टमीनवम्यौ कल्पौ पाषण्डिभिर्ग्रस्तौ ॥ लोकप्रसिद्धमेतद्विष्णुरहस्य' च शिवरहस्यं च । द्वयमिह न परिगृहीतं संग्रहरूपत्वमवधार्य ॥ भविष्योत्तरमाचारप्रसिद्धमविरोषि च । प्रामाण्यज्ञापकाद् दृष्टेर्ग्रन्थादस्मात् पृथक् कृतम् ॥ प्रचरद्रूपतः स्कन्दपुराणकांशतोधिकम् । यत्खण्डत्रितयं पौण्ड्र रेवावन्तिकथाश्रयम् ॥ ताक्ष्यं पुराणमपरं ब्राह्ममाग्नेयमेव च । त्रयोविंशतिसाहस्रं पुराणमपि वैष्णवम् । षट्सहस्रमितं लैंग पुराणमपरं तथा । दीक्षाप्रतिष्ठापाषण्डयुक्तिरत्नपरीक्षणः ॥ मृषावंशानुचरितैः कोष व्याकरणादिभिः । असंगतकथाबन्धपरस्परविरोधतः ॥ तन्मीनकेतनादीनां भण्डपाषण्डलगिनाम् । लोकवञ्चनमालोक्य सर्वमेवावधीरितम् ॥ एतत्पुराणोपपुराणसंख्या बहिष्कृतं कश्मलकर्मयोगात् । पाषण्डशास्त्रानुगतं निरूप्य देवीपुराणं न निबद्ध मंत्र ॥ (६७) । विष्णुपुराण की टीका विष्णुचित्ती का कथन है कि विष्णुपुराण के छः पाठान्तर हैं, यथा ६००० श्लोकों वाला, ८००० वाला, ९०००, १०,०००, २२,००० एवं २४,००० श्लोकों वाला; किन्तु दानसागर ने २३,००० श्लोकों वाले विष्णुपुराण की चर्चा की है, जिसे उसने छोड़ दिया है। मेधातिथि (मनु ४ | २०० ) का कथन है कि प्रत्येक आश्रम की अपनी विशिष्टताएँ हैं, यथा बटुक को मेखला, मृगचर्म, पलाश-दण्ड धारण करना होता है, गृहस्थ को बाँस की छड़ी, कर्णभूषण आदि, वानप्रस्थ को जीर्णशीर्ण वस्त्र एवं जटाजूट तथा संन्यासी को काषाय वस्त्र आदि धारण करना होता है । जो लोग इन आश्रमों में न रहते हुए भी इन लक्षणों से युक्त होकर जीविकोपार्जन करते हैं, वे पापकर्म करते हैं। परा० मा० (११२, पृ० ३८६ ने 'लिगिन्' का अर्थ 'पाशुपत दयः' लगाया है।
४५. कल्पतरु (व्रत, पृ० २७४-३०८) एवं हेमाद्रि ( व्रत, जिल्द १, पृ० ९२१-९५६ ) में दुर्गा की प्रशंसा में भविष्यपुराण से नवमी तिथि के लिए कतिपय श्लोक उद्धृत हुए हैं। दुर्गा के कई नाम हैं, यथा चण्डिका, नन्दा आदि, जिनमें शाक्त गन्ध आती है। उदाहरणार्थ, उभयनवमी व्रत ( कल्पतरु, व्रत, पृ० २७४-२८२ ) के बारे में ऐसी व्यवस्था दी हुई है कि व्यम्बिका नामक अष्टभुजा दुर्गा को लाल पुष्पों से सम्मानित करना चाहिए और भैंसे के मांस का नैवेद्य देना चाहिए। इसी प्रकार नामनवमी व्रत (वही, पृ० २८३-२८८) में नैवेद्य मछली एवं मांस का है तथा महानवमी व्रत ( पृ० २९६-२९८) में मंगला के लिए पायस एवं मांस का नैवेद्य व्यवस्थित है। नन्दानवमी में दुर्गा कोनन्दा कहा गया है और मन्त्र है 'ओं मन्दायै नमः' ( पृ० ३०४ ) तथा महानवमी व्रत (आश्विन शुक्ल ९) में मद्य एवं मांस के साथ भैंसों, भेड़ों एवं बकरों के मुण्डों सहित पूजा की व्यवस्था है। इन सभी नवमी-व्रतों में कुमारियों को भोजन कराने की व्यवस्था है, जो शाक्त पूजा की विशेषता है । ११ वीं शती के बहुत पहले से उत्तरी भारत के लोगों को तान्त्रिक सम्प्रदाय ने प्रभावित कर रखा था, जैसा कि सूर्यमन्त्र 'खखोल्काय नमः' से प्रकट है;
Jain Education International
४०७
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org