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________________ धर्मशास्त्र का इतिहास ४०६ सेतिहासानि ' को हम 'पुराणों एवं इतिहास' के अर्थ में ही ग्रहण करते हैं। यह नहीं समझ में आता कि 'पुराणं यजुषा सह' नामक शब्द इस विश्वास के लिए क्योंकर महत्त्वपूर्ण हैं कि अश्वमेध में ही पुराण एवं महाभारत का मूल है। उस लेख के २०२ वें पृष्ठ पर प्रो० हजा शंकराचार्य के भाष्य ( छान्दोग्य ३।४।१-२ पर) से एक उद्धरण देते हुए एक गहरी भूल करते हैं। उनका कहना है, 'शंकर द्वारा रात्रि का बहुवचन ( रात्रिषु) में प्रयोग करना इस बात है कि उनके मत से इतिहास एवं पुराण पारिप्लव में प्रत्येक रात्रि में प्रयुक्त होते थे, केवल ८ वीं एवं ९वीं रात्रियों में ही नहीं, जैसा कि शतपथब्रा० एवं शांखायन श्रौतसूत्र में आया है*३ अश्वमेध यज्ञ एक वर्ष तक चला और पारिप्लव का श्रवण वर्ष भर चला, प्रत्येक पारिप्लव १० दिनों का होता है ( 'दिन' के स्थान पर 'रात्रि' भी हो सकता है क्योंकि होता का जप प्रातः, मध्याह्न एवं सायं इष्टियों के हो जाने के उपरान्त होता था) । दस दिनों की प्रत्येक अवधि के उपरान्त कितने मन्त्र पढ़े जायेंगे, किस प्रकार के आख्यान सुनाये जायेंगे, यह सब निश्चित रहता है, तथा इतिहास एवं पुराण केवल अष्टमी एवं नवमी को ही सुनाये जायेंगे। प्रत्येक अवधि दस दिनों की होती थी, अतः वर्ष में ३६ अवधियाँ होती रही होंगी। इसी से शंकराचार्य ने 'पारिप्लवासु रात्रिषु' (बहुवचन में ) कहा है, और यह नहीं कहते कि इतिहास एवं पुराण सभी रात्रियों (सर्वासु रात्रिषु) में कहे जाने चाहिए, जैसा कि प्रो० हज्जा उन्हें ऐसा कहते हुए समझते हैं । वेदान्तसूत्र का प्रमाण प्रो० हजा के सर्वथा विरोध में जाता है ( ३।४।२३) | प्रो० हजा ने सन् १९५८ ई० में 'स्टडीज़ इन दि उपपुराणज' (जिल्द १, पृ० १-४००, सौर एवं वैष्णव उपपुराण, कलकत्ता संस्कृत कालेज सीरीज़ १९५८) का प्रकाशन किया है, जिसके विषय में हम संक्षेप में कुछ आगे कहेंगे । प्रो० रामचन्द्र दीक्षितार ने भी पुराणों पर बहुत कुछ लिखा है । इनके प्रकाशनों में भी प्रो० हत्रा में पायी जाने वाली दुर्बलताएँ हैं । उदाहरणार्थ, अपने एक लेख १३ वीं इण्डियन हिस्ट्री कॉंग्रेस की प्रोसीडिंग में प्रकाशित, पृ० ४६-५० ) में इन्होंने दर्शाया है कि विष्णुपुराण ई० पू० ६ ठी या ७ वीं शती में प्रणीत हुआ, क्योंकि उसमें (जो प्रति आज मिलती है, उसमें) व्रतों, उपवासों एवं तीर्थों पर विवेचन नहीं है । मानी हुई बात है कि आज का कोई विद्वान् इस तिथि को स्वीकार नहीं कर सकता । प्रो० दीक्षितार को चाहिए था कि वे कुछ विषयों के अभाव पर अपने तर्कको आधारित न करके उस पुराण के भीतर की बातों पर विचार करते हुए सम्भावित तिथि की चर्चा करते । पुराणों के विषय में चर्चा करते हुए हमें बंगाल के राजा बल्लालसेन कृत 'दानसागर' में लिखित आरम्भिक बातों पर ध्यान देना आवश्यक है । इस ग्रन्थ का सम्पादन श्री भवतोष भट्टाचार्य (बी० आई० सीरीज़, १९५३-५६) ने किया है। राजा बल्लालसेन द्वारा लक्षित बातें उनकी विश्लेषणात्मक शक्ति की द्योतक हैं, जो अन्य मध्यकालीन संस्कृत-लेखकों में नहीं पायी जातीं। उन्होंने गोपथब्राह्मण, रामायण, महाभारत, स्मृतियों एवं गौतम, मनु, याज्ञवल्क्य के धर्मशास्त्रों, (शंख एवं लिखित को दो मानते हुए ) दान - बृहस्पति एवं बृहस्पति ( दोनों पृथक्-पृथक् ), वसिष्ठ आदि धर्मशास्त्रों ( कुल २८ ) के अतिरिक्त छान्दोग्यपरिशिष्ट ( कात्यायन कृत), १३ प्रमुख पुराणों (ब्रह्म, वराह, आग्नेय, भविष्य, मत्स्य, वामन, वायवीय, मार्कण्डेय, वैष्णव, शैव, स्कान्द, पद्म एवं कूर्म ) तथा कूर्म एवं आदि पुराणों में उल्लिखित उपपुराणों (यथा आद्य, साम्ब, कालिका, नान्द, आदित्य, नारसिंह, विष्णुधर्मोत्तर जो मार्कण्डेय द्वारा वर्णित है) का उल्लेख किया है, जिनमें दानों की विधि का वर्णन है। उन्होंने विष्णुधर्म ४३. भाष्य का वचन यह है : 'इतिहासपुराणं पुष्पम् । तयोश्चेतिहासपुराणयोरश्वमेधे पारिप्लवासुरात्रिषु कर्मा गत्वेन विनियोगः सिद्धः ।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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