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________________ ४०५ पौराणिक अनुसंधान पर प्रो० हत्रा एवं दीक्षितार के विचार पाजिटर एवं किर्केल के उपरान्त प्रो० आर० सी० हज्रा के कार्य के विषय में भी चर्चा कर देना आवश्यक है, क्योंकि उन्होंने पुराणों के विषय में बहुत परिश्रम के साथ सोचा- विचारा है। उनके अध्यवसाय, धैर्य एवं उत्साह को देखकर उनके प्रति श्रद्धा उमड़ती है । किन्तु दुःख की बात यह है कि उन्होंने पुष्ट प्रमाणों के न रहते हुए मी आज के पुराणों एवं उपपुराणों को बहुत प्राचीन तिथियाँ देने की मनोवृत्ति बना डाली है । वे पुराणों के अध्ययन में इतने तल्लीन हो गये हैं कि वे वहाँ भी पुराणों की गन्ध पा जाते हैं, जहाँ उनकी गति नहीं है । उदाहरणार्थ, प्रो० हा ( पुराणिक रेकड स आन हिन्दू राइट्स एण्ड कस्टम्स, पृ० ६) ने ऐसा समझा है कि पितरों को दिये गये भोजन को खा लेने पर जो प्रायश्चित्त की व्यवस्था हारीत द्वारा निर्धारित की गयी है, वह पुराणों के कथन के अनुसार ही है, जैसा कि विज्ञानेश्वर कहते हैं । किन्तु मिताक्षरा ( विज्ञानेश्वर कृत याज्ञवल्क्य स्मृति की टीका) में स्पष्ट आया है कि 'पुराणेषु' शब्द का संकेत है 'पुराण' नामक श्राद्ध की ओर, न कि 'पुराण' ग्रन्थों की ओर ।" प्रो० हजा में एक अन्य दोष यह है कि वे सरल शब्दों में भी अधिक अर्थ देखने लगते हैं और अपने निष्कर्ष के विषय में अधिक सावधान नहीं हैं, जो कि उनके समान अनुभव एवं ख्याति वाले विद्वान् को शोभा नहीं देता । अपने एक लेख 'दि अश्वमेध, दि कामन सोर्स आव आरिजिन आव दि पुराण पंचलक्षण एण्ड दि महाभारत' (ए० बी० ओ० आर० आई०, जिल्द ३६, १९५६, पृ० १९० - २०३ ) में उन्होंने अथर्ववेद (११।७।२४) को उद्धृत किया है, जिसमें ऋक् एवं साम मन्त्र पृथक्-पृथक् वर्णित हैं, और 'पुराण' (पुराणं यजुषा सह ) शब्द 'यजुस्' से सम्बन्धित है। प्रो० हज्रा कहते हैं कि यह स्थापना उन्हें बहुत ही महत्त्वपूर्ण जँची है और वे यह कहने में किसी प्रकार का संकोच नहीं कर सकते कि पुराण - पंचलक्षण एवं महाभारत का उद्गम अश्वमेघ यज्ञ से है, विशेषतः पारिप्लव आख्यानों से । हम इस लेख की परीक्षा विस्तार के साथ यहाँ नहीं कर सकेंगे। किन्तु मौलिक विरोधों एवं बातों की चर्चा कर दी जा रही है। 'पुराणं यजुषा सह' का सीधा अर्थ है 'पुराण एवं यजुस्' ('देवदत्तः सपुत्र आगतः' जैसे वाक्यों के समान) । याज्ञ० (१।१०१ ) ने व्यवस्था दी है कि आह्निक स्नान के उपरान्त वैदिक गृहस्थ को प्रति दिन ( तीनों ) वेदों, अथर्ववेद, इतिहास के साथ पुराणों एवं आध्यात्मिकी विद्या ( उपनिषदों) के अंशों का जप करना चाहिए । यहाँ 'पुराणानि ४१. मिताक्षरा ने याज्ञ० (३।२९) पर विचार करते हुए निषिद्ध भोजन करने पर किये जाने वाले प्रायfrent at विशद व्याख्या उपस्थित की है। विभिन्न प्रकार के श्राद्धों में किये जाने वाले भोजन के विषय में इसने कई एक प्रमाण उद्धृत किये हैं-- हारीतेनाप्युक्तम् । एकादशाहे भुक्त्वान्नं भुक्त्वा सञ्चयने तथा । उपोष्य विधिवत्स्नात्वा कूष्माण्डैर्जुहुयाद्धृतम् ॥ इति । विष्णुनाप्युक्तम् । प्राजापत्यं नवश्राद्धे पञ्चगव्यं द्विमासिके ॥ इदं चापद्विषयम् । अनापदि तु चान्द्रायणं नवश्राद्धे प्राजापत्यं तु मिश्रके । एकाहस्तु पुराणेषु प्राजापत्यं विधीयते ॥ इति हारीतोक्तं द्रष्टव्यम् । प्राजापत्यं तु मिश्रके इत्येतदाद्यमासिकविषयं द्रष्टव्यम् । श्राद्ध तीन प्रकार के होते हैं, श्राद्ध ( मृत्यु के उपरान्त १० दिनों तक ), मिश्र या नवमिश्र ( दस दिनों के उपरान्त लगातार एक वर्ष तक करते जाना) एवं पुराण (जो मृत्यु के एक वर्ष उपरान्त किया जाता है) । 'पुराणेषु' शब्द का अर्थ है पुराणेषु श्रषु । हारीत ने नव मिश्र एवं पुराण नामक तीनों श्राद्धों में भोजन कर लेने पर प्रायश्चित्त की व्यवस्था दो है। यहाँ श्लोक में जो 'पुराणेषु' शब्द आया है उसका पुराण नामक ग्रन्थों से कोई सम्बन्ध नहीं है। इस महाग्रन्थ के खण्ड ४ में इन भावों के विषय में विस्तार के साथ बातें दी हुई हैं। ४२. वेदाथर्व पुराणानि सेतिहासानि शक्तितः । जपयज्ञप्रसिद्ध्यर्थं विद्यां चाध्यात्मिकीं जपेत् ॥ याज्ञ० १।१०१ । मिलाइए कूर्म (२०४६।१२९) एकतस्तु पुराणानि सेतिहासानि कृत्स्नशः । एकत्र परमं वेदमेतदेवातिरिच्यते ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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