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________________ पुराण-संहिता के प्रवक्ता सूत शांशपायन ने नयी पुराण-संहिताएँ निर्मित की और सूत के पास चौथी और मूल संहिता रही। ये सभी चार काण्डों में विभाजित की गयीं, उनमें विषय वही था, किन्तु वेद की शाखाओं के समान वे पाठों में अन्तर रखती थीं (अर्थात् उनमें पाठान्तर पाया गया)। शांशपायन की संहिता को छोड़कर सभी में चार सहस्र श्लोक थे। ये ही चार मौलिक संहिताएँ (ब्रह्माण्ड २।३५।६६) या पूर्वसंहिताएँ (वायु ६११५८) कही जाती रही हैं। ब्रह्माण्ड (२।३५।६३-७०) में यही बात अधिकांशतः इन्हीं शब्दों में लिखित है। विष्णु (३।६।१६-१७), अग्नि (२७११११-१२) में संक्षेप में है, किन्तु ये दोनों वायु से मिलते हैं। भागवत (१२।७।४-७) कुछ बातों में इनसे भिन्न है। इस कहानी में कुछ सार है, जैसा कि वायु के कतिपय अध्यायों के कुछ इधर-उधर बिखरे हुए श्लोकों से पता चलता है (५६।१, ६०।३३-३४, ६२॥१, ८९।१६) । यही बात ब्रह्माण्ड के कतिपय श्लोकों से विदित होती है, यथा २।३४।३४, २।३६।१ आदि । इसमें शांशपायन ने प्रश्न किया है और सूत ने उत्तर दिया है। महाभारत एवं पुराणों में सूत का व्यक्तित्वा एक पहेली के समान है। सूत को रोमहर्षण या लोमहर्षण कहा गया है, क्योंकि वे अपनी भावभीनी वक्तृता से श्रोता के रोंगटे खड़े कर देते थे । स्कन्द में ऐसा आया है कि स्वयं सूत महोदय के रोंगटे (रोम) खड़े हो जाते थे, जब वे द्वैपायन से शिक्षा ग्रहण करते थे। सूत का एक अर्थ है 'सारथि' और दूसरा है 'वह व्यक्ति जो प्रतिलोम से जनमा हो', यथा--ब्राह्मण नारी एवं क्षत्रिय पुरुष से उत्पन्न और इसके सजातीय शब्द मागध का अर्थ है 'वह व्यक्ति जो वैश्य पुरुष एवं क्षत्रिय नारी से उत्पन्न हुआ हो' (देखिए मनु १०७१, याज्ञ० ११९३-९४)। कौटिल्य के अर्थशास्त्र ने भी सूत एवं मागध के बारे में यही बात कही है, किन्तु कुछ जोड़ा भी है, यथा--'पुराणों में उल्लिखित सूत एवं मागध इनसे भिन्न हैं, क्योंकि वह (सूत) सामान्य ब्राह्मणों एवं क्षत्रियों से भिन्न है। कौटिल्य के कहने का अर्थ यह है कि उनके समय में सूत एवं मागध प्रतिलोम जाति के थे, किन्तु पुराणों में वर्णित प्रथम वाचकों के रूप में सूत एवं मागध एक अलग श्रेणी के हैं, अर्थात् वे प्रतिलोम जाति के नहीं हैं और दोनों ब्राह्मणों एवं क्षत्रियों से भिन्न हैं (अर्थात् पुराणों के सूत अधिक या कम मुनि के रूप में या अर्ध दैवी रूप में पूजित हैं)। वायु (१।२६-३३ एवं ६२-१४७), पद्म (२।२७।६५-८७, ५।१।२९-३२), ब्रह्माण्ड (२॥३६॥१५८-१७३), स्कन्द (प्रभासखण्ड ११८) का कथन है कि पितामह (ब्रह्मा) के यज्ञ में सूत, उस दिन जब सोम रस निकाला जाता है, विष्णु के एक अंश के रूप में उदित हुए और इसी प्रकार मागध भी उत्पन्न हुए।" उन्हीं पुराणों में ऐसा आया है कि इन्द्र (क्षत्रिय जाति के प्रतीक) वाली हवि बृहस्पति (ब्राह्मण जाति एवं विद्या के प्रतीक) की हवि से मिल गयी, और सूत उसी समय उत्पन्न हो गये जब मिश्रित हवि देवों को दी गयी। इससे (पश्चात्कालीन) सूत के वे ही कर्तव्य निर्धारित रहे हैं, जो आरम्भिक या मौलिक सूत के लिए व्यवस्थित थे और यह ३५. लोमानि हर्षयांचक्रे श्रोतृणां यत्सुभाषितैः । कर्मणा प्रथितस्तेन लोकेस्मिल्लोमहर्षणः॥ वायु (१।१६); तस्य ते सर्वरोमाणि वचसा हर्षितानि यत् । द्वैपायनस्यानुभावात्ततोभूद्रोमहर्षणः। स्कन्द० (प्रभासखण्ड, ११६)। . ३६. वैश्यान्मागषवैदेहको। क्षत्रियात्सूतः। पौराणिकस्त्वन्यः सूतो मागधश्च ब्रह्मक्षत्राद्विशेषतः। अर्थशास्त्र ३७। सूत एवं मागष के उद्गम के विषय में बहुत पहले भी आया है, यथा गौ०१० सू०४।१५-१६, 'प्रतिलोमास्तु सूतमागधायोगवकृत-वैदेहकचण्डालाः। ब्राह्मण्यजीजनतपुत्रान् वर्षेभ्यः आनुपूर्व्याद् ब्राह्मण-सूत-मागध-चण्डालान्। ३७. एतस्मिन्नेव काले च यज्ञे पैतामहे शुभे। सूतो सुत्यां समुत्पन्नो सौत्येहनि महामतिः॥ तस्मिन्नेव महायज्ञे जज्ञे प्राज्ञोथ मागधः। वायु (६२।१३५-१३६), ब्रह्म (४।६०-६१)। 'सूत' शब्द 'सु' पातु से व्युत्पन्न है, जिसका अर्थ है 'निकालना। . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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