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________________ ४०२ धर्मशास्त्र का इतिहास दुर्बल है; हास्यास्पद कहने की बात ही क्यों उभाः । जाय । ऋग्वेद के प्रत्येक स्तोत्र या प्रत्येक मन्त्र का एक ऋषि है, जो प्राचीन भारतीय परम्परा के अनुसार लेखक नहीं था (जैसा कि पाजिटर ने कहा है), प्रत्युत द्रष्टा था। ब्राह्मण-ग्रन्थों, उपनिषदों एवं स्मृतियों से यह स्पष्ट है कि बहुत प्राचीन काल से ही एक कठिन नियम बना था कि कोई भी बिना ऋषि, छन्द, देवता एवं विनियोग (प्रयोग) जाने किसी मन्त्र को न तो पढ़ा सकता था, न जप में कह सकता था और न यज्ञ में उसका प्रयोग कर सकता था, नहीं तो इन चारों बातों में उपेक्षा दिखाने वाले या प्रमादी या असावधान व्यक्ति को दारुण फल भुगतने पड़ते थे । स्तोत्र एवं मन्त्र विभिन्न दलों में इसलिए विभाजित एवं संगठित थे कि उनका उपयोग विभिन्न धार्मिक कृत्यों, पुनीत यज्ञों या अन्य कार्यों (यथा - शान्ति आदि) में हो सके। यह स्मरण रखना कोई आवश्यक नहीं है कि कृत्यों, यज्ञों एवं अन्य उपयोगों के लिए किसने मन्त्रों को संग्रथित किया । ब्राह्मण-ग्रन्थों एवं श्रौत सूत्रों ने विभिन्न उपयोगों के लिए उन्हीं मन्त्रों के प्रयोग की विधि की व्यवस्था दी है और उनकी अनुक्रमणिकाओं में ऋषियों (द्रष्टाओं ), छन्द, स्तोत्र - देवताओं एवं कतिपय मन्त्रों के नाम दिये हुए हैं । वेद का प्रत्येक मन्त्र ऋषि द्वारा दर्शित माना गया है और अमर है, केवल एक या कई सरणियों में मन्त्रों को संगृहीत करने, या उन्हें या स्तोत्रों को विभिन्न वर्गों में विभिन्न उपयोगों के लिए संग्रथित करने से मन्त्रों एवं स्तोत्रों की अमरता में कोई अन्तर नहीं पड़ता । अतः पाजिटर का वह तर्क जो वेद के संग्रथनकर्ता के नाम को छिपाने के विषय में कहा गया है, कोई तर्क ही नहीं है । पाजिटर महोदय ने संभव समाधानों या व्याख्याओं पर विचार करने की ओर सोचा ही नहीं। एक व्याख्या नीचे दी जा रही है। महाभारत एवं पुराण ( एक विशद साहित्य) व्यास द्वारा प्रणीत माने गये हैं, जिन्हें, जैसा कि हमने ऊपर देख लिया है ( पाद-टिप्पणी ३३), विष्णु या विष्णु का अवतार कहा गया है। चार वेद एवं प्रत्येक वेद की विभिन्न शाखाएँ लोगों को भली भाँति विदित थीं । वेद का चार भागों में विभाजन देवी शक्ति से प्रेरित व्यास का कार्य था, जिनके संग्रथित पुराण वेद से भी पूर्व के एवं उससे भी उत्तम माने गये थे। ऐसा था व्यास का महत्त्व । वेद की अमरता एवं अनादिता की रक्षा तो करनी ही थी और साथ ही व्यास को गौरवशाली बनाना था। महाभारत लेखक एवं पुराणों को अठारह भागों में विभाजित करने वाले व्यास को सरलतम ढंग से गौरव देना चाहिए था यह उद्घोष करके कि वे वेद के विभाजन एवं संग्रथन के उत्तरदायी मी थे । यदि ईसा के पूर्व एवं उपरान्त कुछ शताब्दियों में व्यास को यह सब गौरव दिया गया था तो वही माना हुआ वेद का व्यवस्थापक एवं संग्रथनकर्ता प्रारम्भिक वैदिक साहित्य में क्योंकर वर्णित हुआ और (जैसा कि अधिकांश विद्वान् मानते हैं) बुद्ध से कुछ शताब्दियों पूर्व (अर्थात् ई० पू० छठी शती के पूर्व ) उसकी महत्ता का वर्णन बन्द कर दिया गया ? ऐसा कोई नहीं कह सकता कि मण्डलों या अष्टकों या काण्डों की व्यवस्था अमर है । केवल स्तोत्र या मन्त्र ही अमर कहे गये हैं । यहाँ तक कि ऋग्वेद का पदपाठ भी अनित्य कहा गया है और शाकल्य द्वारा लिखित माना गया है, जिसकी आलोचना निरुक्त (६।२८) में हुई है । याज्ञ० ( ३।२४२ ) की टीका में विश्वरूप ने स्पष्ट रूप में कहा है कि वेद के पद एवं क्रम के संगठन में मानवीय प्रयास है। यह सिद्धान्त सभी बातों पर प्रकाश डाल देता है और पाजिटर महोदय के उस सिद्धान्त से कई गुना अच्छा है जो यह बताता है कि जान-बूझकर व्यास के विषय में मौन का सहारा लिया गया। अपने उद्गम एवं प्रसार के विषय में पुराण एकमत होकर नहीं बोलते। इसका उद्घोष करने के उपरान्त कि व्यास ने पुराणों के संरक्षण एवं प्रचार का कार्य सूत को दिया, वायुं एवं अन्य पुराण विभिन्न बातें कहते हैं । वायु (६१।५५-६१) में आया है -- ' सूत के ६ शिष्य थे, यथा - सुनीति आत्रेय, अकृतव्रण काश्यप, अग्निवर्चा भारद्वाज मित्रयु वसिष्ठ सार्वाण सौमदत्ति एवं सुशर्मा शांशपायन । इनमें तीन, अर्थात् काश्यप, सार्वाण एवं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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