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पाजिटर के रचनाविषयक आक्षेप
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व्यास को जो वेद को व्यवस्थित करने की अनुश्रुतिपूर्ण महत्ता प्राप्त है, उसके विषय में पाजिटर का एक अपना सिद्धान्त है, जिसका संक्षेप में यहाँ विवरण देना एवं उसकी जाँच करना आवश्यक है। उन्होंने ऋग्वेद को ब्राह्मणों का सबसे बड़ा ग्रन्थ ठहराया है और कहा है कि यह बहुत से लेखकों के स्तोत्रों का संग्रह है और कुछ सिद्धान्तों के आधार पर इसकी व्यवस्था की गयी है। पार्जिटर के शब्द ये हैं - 'यह (ऋग्वेद) स्पष्ट रूप से एक या कई व्यक्तियों द्वारा संगृहीत एवं संगठित किया गया है, किन्तु वैदिक साहित्य इस विषय में कुछ भी नहीं कहता । ब्राह्मण लोग इस विषय में अनभिज्ञ नहीं रहे होंगे, क्योंकि उन्होंने इसका संरक्षण किया और अद्भुत सावधानी के साथ इसके शब्दों को शुद्ध रखा।.. . वैदिक साहित्य अधिकांश सभी स्तोत्रों के लेखकों के नाम को जानता है या उनका उद्घोष करता है, यहाँ तक कि कुछ मन्त्रों के लेखकों के नाम भी ज्ञात हैं, तथापि इसने उस व्यक्ति या उन व्यक्तियों से अपने को अनभिज्ञ रखना चाहा, जिसने या जिन्होंने ऋग्वेद का संग्रहण एवं संग्रथन किया। यदि मान लिया जाय कि इसने प्रारम्भिक वृत्तान्त की रक्षा तो की किन्तु आगे के महत्त्वपूर्ण विषय के बारे में अनभिज्ञ रहा तो ऐसा मानना हास्यास्पद होगा ।' किसने या किन्होंने ऋग्वेद का संग्रह किया या उसे संग्रथित किया, वैदिक साहित्य के इस विषय में मौन रहने से पाजिटर महोदय अचानक एक भावात्मक एवं दृढ निष्कर्ष पर पहुँच जाते हैं, जैसा कि पाश्चात्य लेखकों में देखा जाता है । संस्कृत साहित्य एवं भारतीयता - शास्त्र ( इण्डोलाजी) के पाश्चात्य लेखक किसी 'मौन' पर तर्क देने लगते हैं कि 'वैदिक साहित्य ने जान बूझकर इन विषयों को दबाया है ( ऐंश्येण्ट इण्डियन हिस्टारिकल ट्रेडिशन, पृ० ९ ) । पाजिटर ने इस तथ्य की ओर संकेत किया है कि महाभारत एवं पुराण व्यास नाम से भरे पड़े हैं और बारम्बार उद्घोषित करते हैं कि वेद व्यास द्वारा संग्रथित किया गया है । वे इस ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करते हैं कि वैदिक साहित्य व्यास पाराशर्य के बारे में महत्त्वपूर्ण ढंग से मौन है (व्यास, सामविधान ब्राह्मण के अन्त में एवं तैत्तिरीय आरण्यक में, वंश-सूची में, विश्वक्सेन के शिष्य के रूप में उल्लिखित हैं ) । इसके उपरान्त पाजिटर महोदय व्यास के विषय में मौन रूपी दुरभिसन्धि को बार-बार दुहराते हैं (ऐ० इ० हि० ट्रे०, पृ० १० ) । पाजिटर इस प्रकार का मौन सम्बन्धी अभियोग लगा कर एक तर्क के साथ उभर पड़ते हैं- 'ब्राह्मणों ने ऐसा सिद्धान्त अग्रसारित किया कि वेद अनादि काल से ही चला आ रहा है, अतः यह कहना कि किसी ने इसका संग्रह किया या इसे संग्रथित किया, इस सिद्धान्त की जड़ को ही काट देना है...' ( वही, पृ० १० ) । वैदिक साहित्य के तथाकथित मौन सम्बन्धी पाजिटर - सिद्धान्त के विरोध में कई समाधान उपस्थित किये जा सकते हैं। पहली बात यह है कि पाजिटर महोदय तथ्य-सम्बन्धी अपने वक्तव्य के विषय में अमर्यादित रहे हैं। पाजिटर इस बात से पूर्णतया अनभिज्ञ हैं, यहाँ तक कि ऋग्वेद में भी ऋक् मन्त्रों, यजुस् वचनों एवं साम गीतों
अन्तर प्रकट किया गया है। देखिए ऋकों के लिए ऋ० २।३५।१२, ५।६।५, ५२७/४, ५२४४।१४-१५, दोनों में ऋक् मंत्र एवं साम के मन्त्र अलग-अलग वर्णित हैं; यजुस् के लिए देखिए ऋ० ५।६२।५, १०।१८१ । ३; साम गीतों के लिए देखिए ऋ० २।४३।२ ( उद्गातेव शकुने साम गायसि ), ८।८११५ ( श्रवत् साम गीयमानम् ), ८।९५ ७ (शुद्धेन साम्ना ) ।
रामायण-महाभारत एवं पुराणों से पता चलता है कि मौलिक रूप से वेद एक था, किन्तु चार दलों में विभाजित एवं संग्रथित किया गया और ये चारों संग्रथित संग्रह - दल संरक्षण एवं प्रसार के लिए व्यास के चार विभिन्न शिष्यों को सौंपे गये । ऋग्वेद में दो व्यवस्थाएँ हैं, एक मण्डलों एवं सूक्तों के रूप में और दूसरी अष्टकों, अध्यायों एवं वर्गों में । तैत्तिरीय संहिता एवं अथर्ववेद काण्डों में संग्रथित हैं । इन स्थानों में कहीं भी ऐसा नहीं आया है कि ये स्तोत्र पहले से ही हैं या संग्रथित हैं या मण्डलों या अध्यायों या काण्डों में व्यास द्वारा व्यवस्थित किये गये हैं । इसके अतिरिक्त वेद के संग्रथनकर्ता के नाम को दबाने के विषय में जो तर्क उपस्थित किया गया है वह
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