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धर्मशास्त्र का इतिहास व्यास एवं सूत से सम्बन्धित अनुश्रुतियों पर भी संक्षेप में विचार कर लेना आवश्यक है। पुराणों ने घोषित किया है कि व्यास पराशर के पुत्र थे, वे कृष्ण द्वैपायन भी कहे जाते थे और स्वयं विष्णु के अवतार थे (ब्रह्मा के भी अवतार कहे गये हैं, यथा वायु ७७।७४-७५, शिव के भी अवतार कहे गये हैं, यथा कूर्म० २।११।१३६) । उनका द्वैपायन" नाम इसलिए पड़ा कि उनका जन्म यमुना नदी के एक द्वीप में हुआ था और कृष्ण नाम इसलिए पड़ा क्योंकि उनका रंग काला (कृष्ण) था। उनकी माता सत्यवती थीं और पुत्र थे शुक। उन्होंने वेद को चार भागों में विभाजित या व्यवस्थित किया, अतएव वे व्यास कहलाये (धातु ‘अस्' तथा उपसर्ग 'वि'; 'अस्' का अर्थ है ‘फेंकना')। उन्होंने चारों वेदों में चार शिष्यों को प्रशिक्षित किया, यथा-पैल, वैशम्पायन, जैमिनि एवं सुमन्तु जो क्रमशः ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद एवं अथर्ववेद में पारंगत हुए। उनके पाँचवें शिष्य थे सूत रोमहर्षण, जिन्हें इतिहास-पुराण में प्रशिक्षित किया गया। सूत के पुत्र थे सौति, जिन्होंने महाभारत का पाठ शौनक एवं अन्य मुनियों को नैमिषारण्य में सुनाया। ऐसा विश्वास किया जाता है कि जब कभी धर्म की हानि देखी गयी, मानवों के कल्याण के लिए व्यास ने जन्म लिया (ब्रह्म० १५८।३४) । कूर्म० (११५२।१-९) ने विभिन्न व्यासों के २७ नाम दिये हैं, किन्तु वायु० (२३।११५-२१९), ब्रह्माण्ड० (२।३५।११६-१२५), विष्णु० (३।३।११-१९) ने वैवस्वत मन्वन्तर (जो आजकल चल रहा है) के २८ द्वापर युगों के २८ व्यासों के नामों का उल्लेख किया है। व्यास ने पुराणों को किस प्रकार एक स्थान पर संगृहीत किया, इसके विषय में कई पुराणों में इस प्रकार आया है-'उसने, जो पुराण के अर्थ के विषय में प्रवीण था, आख्यानों, घटनाओं, गाथाओं से सामग्रियाँ लेकर तथा कल्पों का सम्यक् निरूपण करके पुराण संहिता का प्रणयन किया। इससे स्पष्ट है कि जहाँ वैदिक विषय ब्राह्मणों द्वारा अद्वितीय ढंग से संरक्षित
न इतिहास-पूराण, जो पंचम वेद कहा गया है, उसी प्रकार सावधानी से रक्षित नहीं हो पाता था। इसीलिए चारों वेद और पाँचवें वेद में समय-समय पर नयी-नयी बातों का समावेश होता रहता था।
___३३. अस्मिन्युगे कृतो व्यासः पाराशर्यः परन्तपः (परन्तप?) । द्वैपायन इति ख्यातो विष्णोरंशः प्रकीर्तितः॥ ब्रह्मणा चोदितः सोस्मिन्वेदं व्यस्तुं प्रचक्रमे। अय शिष्यान् स जग्राह चतुरो वेदकारणात् ॥ ऋग्वेदश्रावकं पलं जग्राह विधिवद् द्विजम् । यजुर्वेदप्रवक्तारं वैशम्पायनमेव च ॥ जैमिनि सामवेदार्थ श्रावकं सोन्यपद्यत। तयवाथर्ववेदस्य सुमन्तुमृषिसत्तमम् ॥ इतिहास पुराणस्य वक्तारं सम्यगेव हि। मां चैव प्रतिजग्राह भगवानीश्वरः प्रभुः॥ वायु (६०।११-१६) । ब्रह्माण्ड (२॥३४॥११-१६, सभी शब्द एक प्रकार से समान हैं)। मिलाइए विष्णु (३॥४॥ ७-१०), कूर्म (१५२।१०-१५), विष्णुधर्मोत्तर (१७४)। कूर्म (११५११४८), पन (५।११४३), भागवत (१।४।१४-२५ एवं १२।६।४९-८०) एवं नारदीय (१।१।१८) ने व्यास को नारायण कहा है। आदिपर्व ने पुराणों के वक्तव्यों को मान लिया है, 'विव्यासैकं चतुर्षा यो वेदं वेदविदां वरः। आदि ६०२ एवं ५; यो व्यस्य वेदांश्चतुरस्तपसा भगवानृषिः । लोके व्यासत्वमापेदे कानूँत्कृष्णत्वमेव च ॥ आदि (१०५।१५)।
३४. आख्यानैश्चाप्युपाख्यानैर्गाथाभिः कल्पशुद्धिभिः। पुराणसंहितां चक्रे पुराणार्थविशारदः ॥ विष्णु (३॥६॥ १५), ब्रह्माण्ड (२॥३४।२१, यहाँ कल्पजोक्तिभिः आया है), वायु (६०।२१, यहाँ कुलकर्मभिः आया है)। 'कल्पजोक्तिभिः' का अर्थ होगा ऐसे शब्द या वृत्तान्त जो कल्पों (काल की लम्बी अवषियों) से सम्बन्धित होते हैं। विष्णुपुरा की टीका में आया है, 'स्वयं दृष्टार्यकथनं प्राहुराख्यानकं बुधाः। श्रुतस्यार्थस्य कथनमुपाल्यानं प्रचक्षते॥
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