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________________ पुराणों पर तत्कालीन स्थिति का प्रभाव ३९९ साँस लेता है।' पद्मपुराण ने थोड़ी भिन्न व्युत्पत्ति की है, यथा—'यह पुराण कहलाता है, क्योंकि यह अतीत को चाहता है या उसे पसन्द करता है' ('पुरा' एवं धातु ‘वश्' से; 'वश्' का अर्थ है चाहना या पसन्द करना)।२ उपस्थित पुराणों में गुप्तों एवं उनके उत्तराधिकारी वंशजों की वंशावलियों एवं कुलों का वृत्तान्त क्यों नहीं पाया जाता ? इस प्रश्न का उत्तर सन्तोषजनक ढंग से नहीं दिया जा सकता। एक कारण यह हो सकता है कि कुछ पुराणों का मौलिक बीजारोपण (यथा मत्स्य का) गप्तों के अभ्यदय के पूर्व ही हो गया था, किन्तु वायु एवं ब्रह्माण्ड तब प्रणीत हुए जब गुप्त-शासन अभी शैशवावस्था में था। दूसरा कारण यह हो सकता है कि पाँचवीं एवं इसके आगे की शताब्दियों में, जब कि उपस्थित पुराणों में अधिकांश का प्रणयन हआ, उत्तरी भारत हणों (तोरमाण एवं मिहिरकूल) से पदाक्रान्त था, कतिपय सम्प्रदाय एवं धर्म-मतभेद उत्पन्न हो गये थे, बौद्धधर्म शक्तिशाली हो गया था, अतः बुद्धिमान् एवं वेद के भक्त लोगों का प्रथम कर्तव्य हो गया कि वे सामान्य जनता का मन धर्म-मतभेद से अलग करें (बौद्ध जैसे लोगों को समझायें या उनके प्रभाव में आने से लोगों को रोकें), जनता में नयी विचारधारा की नींव डालें एवं अपने प्राचीन व्यवहारों एवं परम्पराओं में विभिन्न सम्प्रदायों एवं धार्मिक मतभेदों को पचा डालें। अतः बुद्धिमान् वर्गों ने अहिंसा, सत्य, भक्ति के नैतिक गुणों, व्रतों, तीर्थयात्राओं, श्राद्धों एवं दानों की महत्ता पर बल देना श्रेयस्कर समझा, और सम्भवतः वे इस मनःस्थिति में नहीं थे कि वे बाह्य आक्रामकों का वृत्तान्त उपस्थित करते या उन छोटे-छोटे सामन्तों की गाथा गाते जो पारस्परिक झगड़ों में उलझे हुए थे और क्रूर आक्रामकों को भगा देने में अशक्त थे। गुप्तों एवं उनके उत्तराधिकारियों के वंशों की ओर पुराणों के मौन का कारण पाजिटर महोदय ब्राह्मणों को समझते हैं; वे ब्राह्मणों के सिर पर सारा दोष मढ़ देते हैं और उनकी निम्नलिखित आलोचना द्रष्टव्य है-'उस अवस्था के उपरान्त परम्परागत इतिहास का पूर्ण अभाव भली भांति समझा जा सकता है, क्योंकि पुराण के संग्रहण ने परम्परा पर एक मुहर लगा दी थी तथा पुराण शीघ्र ही ब्राह्मणों के हाथ में पड़ गये जिन्होंने जो कुछ प्राप्त किया उसका संरक्षण तो किया, किन्तु इतिहास-सम्बन्धी ब्राह्मणीय उपेक्षा के कारण उन्होंने पश्चात्कालीन राजाओं के विषय में कुछ नहीं जोड़ा। थोड़ी देर के लिए यदि यह मान लिया जाय कि ब्राह्मणों में इतिहास-सम्बन्धी चेतनता नहीं थी, तब भी पाजिटर की सम्मति पूर्णरूपेण एकपक्षीय है। पाजिटर महोदय यह नहीं बताते और न कोई तर्क ही उपस्थित करते कि सूतों ने (जिनका व्यवसाय ही था ऐतिहासिक परम्पराओं का संग्रह करना एवं संरक्षण करना, जैसा कि वे स्वयं कहते हैं, देखिए ए० आई० एच० टी०, पृ०५८) क्यों नहीं अपना वह व्यवसाय प्रचलित रखा और क्यों नहीं आगे के राजाओं की वंशावलियाँ लिखीं तथा इतिहास के अन्य विषयों को जोड़ा? और न पाजिटर महोदय इसकी ही व्याख्या करते हैं कि सूत लोग क्यों अपने प्राचीन व्यवसाय से वंचित कर दिये गये और उन्होंने क्यों अपनी यह वृति ब्राह्मणों को सौंप दी? यह सम्भव है कि कनिष्क एवं हूण जैसे बाह्य वर्गों ने सूतों को, जो सामाजिक रूप में बहुत निम्न वर्ग के समझे जाते थे, कोई बढ़ावा नहीं दिया, और वे सम्भवतः बौद्ध हो गये, क्योंकि बौद्ध धर्म की जातक कथाएँ इतनी मोहक एवं प्रसिद्ध रही होंगी कि उनको सुनाने का व्यवसाय करके जीवन-निर्वाह करना सूतों के लिए कोई कठिन कार्य नहीं रहा होगा। .. ३२. यस्मात्पुरा ह्यनतीदं पुराणं तेन तत्स्मृतम् । निरुक्तमस्य यो वेद सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ वायु (१।२०३), पुरा परम्परा बष्टि पुराणं तेन वै स्मृतम् । पन (५।२।५३); ब्रह्माण्ड (१।१।१७३) में आया है-यस्मात्पुरा ह्यभूच्चैतत्पुराणं तेन तत्स्मृतम् । निरुक्त... मुच्यते॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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