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________________ ३९८ धर्मशास्त्र का इतिहास या 'पुराणज्ञाः' (वायु ८८११७१ एवं ९५।१९, ब्रह्माण्ड ३१६३।१७१) कहे गये हैं। वायु (९३३९४-१०१) ने ययाति द्वारा गायी गयी बहुत सी गाथाएँ उल्लिखित की हैं, जिनमें बहुत सी आदिपर्व (७५।५०-५३ एवं ८५।१२-१५), ब्रह्माण्ड (३।६८-१०३) एवं अन्य पुराणों में भी पायी जाती हैं। यह सम्भव है कि ये गाथाएँ एवं श्लोक उन लोगों द्वारा घोषित हुए हों, जो यह जानते थे कि पुराण आपस्तम्ब द्वारा जाने गये पुराण या पुराणों से लिये गये हैं। याज्ञ० (११३) ने पुराण को धर्म-साधनों में एक साधन माना है, जिससे यह सिद्ध होता है कि कुछ ऐसे पुराण, जिनमें स्मृति की बातें पायी जाती थीं, उस स्मृति (अर्थात् याज्ञवल्क्यस्मृति) से पूर्व ही, अर्थात् दूसरी या तीसरी शती में प्रणीत हो चुके थे। पुराण-साहित्य के विकास को यह तीसरी सीढ़ी है। यह कहना कठिन है कि वर्तमान मत्स्य मौलिक रूप से कब लिखा गया, किन्तु यह तीसरी शती के मध्य या अन्त में संशोधित हुआ, क्योंकि इसमें आन्ध्र वंश के अधःपतन की चर्चा तो है, किन्तु गुप्तों का कोई उल्लेख नहीं है। किन्तु यह सम्भव है कि मत्स्य का मौलिक बीज इससे कई शतियों पुराना हो। यही बात वायु एवं ब्रह्माण्ड के साथ भी है। ये दोनों लगभग ३२०३३५ ई० के आसपास संगृहीत हुए या सम्बधित हुए, क्योंकि इन्होंने गुप्तों की ओर संकेत तो किया है किन्तु गुप्त राजाओं के नाम नहीं लिये हैं। आज के रूप में ये दोनों पुराण (वायु एवं ब्रह्माण्ड) विकास की तीसरी सीढ़ी में ही रखे जा सकते हैं। महापुराणों में अधिकांश ५वीं या छठी शती और ९वीं शती के बीच में प्रणीत हुए या पूर्ण किये गये। यह है पुराण-साहित्य के विकास को चौथी सीढ़ी। उपपुराणों का संग्रहण ७वीं या ८वीं शताब्दी से आरम्भ हुआ और उनकी संख्या १३ वीं शती तक या इसके आगे तक बढ़ती गयी। यह है पुराण-साहित्य के विकास की अन्तिम सीढ़ी। इस प्रकार हम देखते हैं कि पुराणों ने हिन्दू समाज को ईसा के पूर्व की कुछ शतियों से प्रभावित करना आरम्भ किया और ईसा के उपरान्त १७ वीं या १८ वीं शती तक और वे आज भी प्रभावित किये हुए हैं। नवीं शती के उपरान्त कोई अन्य महापुराण नहीं प्रकट हुए, किन्तु अतिरिक्त विषयों का समावेश कुछ पुराणों में होता रहा, जिसका सबसे बुरा उदाहरण है भविष्य का तृतीय भाग, जिसमें 'आदम एवं ईव', पृथिवीराज एवं जयचन्द, तैमूर, अकबर, चैतन्य, भट्टोजि, नादिरशाह आदि की कहानियाँ भर दी गयी हैं। 'पुराण' शब्द ऋग्वेद में एक दर्जन से अधिक बार आया है, वहाँ यह विशेषण है और इसका अर्थ है 'प्राचीन, पुरातन या वृद्ध।' निघण्टु (३।२७) ने पुराण के अर्थ में छ: वैदिक शब्द दिये हैं, यथा 'प्रत्नम्', 'प्रदिवः', 'प्रवयाः', 'सनेमि', 'पूर्व्यम्', 'अह्नाय' । यास्क (निरुक्त, ३।१९) ने पुराण की व्युत्पत्ति की है 'पुरा नवं भवति' (जो पूर्व काल में नया था)। ऋग्वेद में 'पुरातन' (प्राचीन) शब्द नहीं आता। 'पुराण' बीच वाले 'पुरा अण' द्वारा 'पुरातन' का अति प्राचीन रूप हो सकता है। प्राचीन के अर्थ में 'पुराण' शब्द आगे चलकर ऐसे ग्रन्थ का द्योतक माना जाने लगा जो प्राचीन गाथाओं (कथानकों) से सम्बन्धित हो; यह संज्ञा हो गया और अथर्ववेद, शतपथ एवं उपनिषदों के काल में ऐसे ग्रन्थों के लिए प्रयक्त होने लगा जिनमें प्राचीन कथाएँ हों। जब पूराण प्राचीन कथानकों वाले ग्रन्थ का द्योतक हो गया, तो भविष्यत्-पुराण कहना स्पष्ट रूप से आत्म-विरोध का परिचायक हो गया। किन्तु सम्भवतः इस विरोध पर ध्यान नहीं दिया गया या इस विचार से इस पर लोगों ने ध्यान नहीं दिया कि ऐसे ग्रन्थ जिनमें प्राचीन कथाएँ रहती थीं, क्रमशः हाल की घटी कथाओं को भी सम्मिलित करने लगे और इसीलिए वे भविष्यवाणी की शैली को अपना बैठे और बाद वाली घटनाओं एवं कथानकों को स्थान देने लगे। वायु ने 'पुराण' शब्द की व्युत्पत्ति 'पुरा' (प्राचीन काल में, पहले) एवं धातु 'अन्' (साँस लेना या जीना) से की है, अतः इसके अनुसार 'पुराण' का शाब्दिक अर्थ है 'जो अतीत में जीवित है' या 'जो प्राचीन काल की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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