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किर्फल द्वारा पाजिटर की आलोचना पुराणों का काल
'३९७ उनका पूर्ण एवं स्पष्ट व्याख्यात्मक निर्वाह किया था। किर्फेल महोदय इस कथन को विशुद्ध कल्पनात्मक मानते हैं (उक्त जर्नल की जिल्द, ८, पृ० ३१)।
प्रस्तुत लेखक किर्फेल महोदय के अधिकांश मतों को प्रयोगात्मक रूप से स्वीकार करता है, किन्तु यह मानने को तैयार नहीं है कि पंच-लक्षण (सर्ग आदि) सम्पूर्ण पुराण साहित्य के प्राचीनतम मौलिक अंश हैं।
इस प्रकरण के विषय के साथ पुराणों की तिथि अथवा युग पर विवेचन करना समीचीन नहीं होगा। तो भी दो-एक बातें कह देना पूर्णतया अप्रासंगिक नहीं लगता।
पुराणों के विषय में प्रस्तुत लेखक के विचार ये हैं--अथर्ववेद, शतपथ ब्राह्मण एवं प्राचीन उपनिषदों में उल्लिखित 'पुराण' के विषय में हमें कुछ भी ज्ञात नहीं है, किन्तु इतना स्पष्ट है कि पुराण ने वेदों के समान ही पुनीतता के पद को प्राप्त कर लिया था और वैदिक काल में वह इतिहास के साथ गहरे रूप से सम्बन्धित था। पुराण-साहित्य के विकास को यह प्रथम सोढ़ी थी, किन्तु हम प्राचीन कालों के पुराण के भीतर के विषयों को बिल्कुल नहीं जानते। ते. आ० ने 'पुराणानि' का उल्लेख किया है, अतः उसके समय में कम-से-कम तीन पुराण तो अवश्य रहे होंगे (क्योंकि यह बहुवचन में है और द्विवचन में रहने पर केवल दो का बोध होता ) । आपस्तम्बधर्मसूत्र ने एक पुराण से चार श्लोक उद्धृत किये हैं और एक पुराण को भविष्यत्पुराण नाम से पुकारा है, जिससे प्रकट होता है कि पाँचवीं या चौथी ई० पू० शती तक कम-से-कम भविष्यत्पुराण नामक पुराण था, और अन्य पुराण रहे होंगे या एक और पुराण रहा होगा जिसमें सर्ग एवं प्रतिसर्ग तथा कुछ स्मृति-विषय रहे होंगे। इसे हम पुराण-साहित्य के विकास को दूसरी सोढ़ी कह सकते हैं, जिसके विषय के बारे में हमें कुछ थोड़ा-बहुत ज्ञात है।
महाभारत ने सैकड़ों श्लोक (श्लोकों, गाथाओं, अनुवंश श्लोकों के नाम से विख्यात) उद्धृत किये हैं जिनमें कुछ तो पौराणिक विषयों की गन्ध रखते हैं और कुछ पौराणिक परिधि में आ जाते हैं। कुछ उदाहरण दिये जा रहे हैं। वन-पर्व ने विश्वामित्र की अतिमानुषी विभूति के विषय में एवं उनके इस कथन के विषय में कि वे ब्राह्मण हैं दो श्लोक उद्धृत किये हैं। अनुशासनपर्व ने कुछ ऐसी गाथाएँ उद्धृत की हैं जो पितरों द्वारा पुत्र या पुत्रों की महत्ता के विषय में गायी गयी हैं। ये गाथाएँ शब्दों एवं भावों में इसी विषय में कहे गये पौराणिक वचनों से मेल रखती हैं।" उद्योगपर्व (१७८१४७-४८) में भीष्म ने परशुराम से एक श्लोक कहा है, जो मरुत्त द्वारा गाया गया था और पुराण में घोषित था। पुराणों में भी श्लोकों, गाथाओं एवं अनुवंश श्लोकों के उद्धरण पाये जाते हैं, जो लोगों में गाये जाते थे और 'पौराणिक' (वायु ७०।७६, ८८।११४-११६, ८८।१६८-१६९ में, ब्रह्माण्ड ३।६३।६९-७० में)या 'पुराविदः'
३०. यत्रानुवंशं भगवान् जामदग्न्यस्तया जगौ। विश्वामित्रस्य तां दृष्ट्वा विभूतिमतिमानुषीम् ॥ कान्यकुब्जेपिबत्सोममिन्द्रेण सह कौशिकः । ततः क्षत्रादपाकामद् ब्राह्मणोस्मीति चाबवीत् ॥ वनपर्व (८७।१७-१८)। वैदिक यज्ञ में केवल ब्राह्मण ही सोम का पान कर सकते थे, क्षत्रिय नहीं। देखिए इस प्रन्थ का खण्ड २। ___३१. गाथाश्चाप्यत्र गायन्ति पितृगीता युधिष्ठिर। सनत्कुमारो भगवान्पुरा मय्यभ्यभाषत ॥ अपि नः स कुले जायाद्यो नो दद्यात् त्रयोदशीम् । मघासु सपिःसंयुक्तं पायसं दक्षिणायने । आजेन वापि लौहेन मघास्वेव यतव्रतः। हस्तिच्छायासु विधिवत्कर्णव्यजनवीजितम् ॥ एष्टव्या बहवः पुत्रा योकोपि गयां व्रजेत् । अनुशासनपर्व (८८०११-१४।) मिलाइए विष्णुपुराण (३।१६।१७-२०), ब्रह्माण्ड (३३१९।१०-११), वायु (८३॥११-१२), जिनमें सभी के आधे श्लोक हैं 'मपि नः ...शीम्' जैसा कि अनु० में है।
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