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________________ धर्मशास्त्र का इतिहास सम्भवतः पाजिटर महोदय आपस्तम्ब के 'भविष्यत्' को पश्चात्कालीन 'भविष्य' के सदृश समझ लेना चाहते हैं । किन्तु नाम साम्य के अतिरिक्त कोई अन्य प्रमाण ऐसा नहीं है जिसके आधार पर ऐसा समझा जाय या कहा जाय । अतः ऐसा प्रकट होता है कि वर्तमान पुराण ऐल, ऐक्ष्वाक एवं पौरव के वंशजों का वृत्तान्त 'प्राचीन भविष्य' के आधार पर देते हैं, किन्तु अन्य एवं अपेक्षाकृत पश्चात्कालीन राजाओं के वृत्तान्त के लिए वे अन्य बातों या मौखिक परम्पराओं का, जिन्हें वे संगृहीत कर सके, सहारा लेते हैं। अन्य परिस्थितियों से यह अनुमान दृढता प्राप्त करता है। आज के पुराण प्राचीन राजाओं के बारे में 'अनुवंश श्लोक' या गाथाएँ उद्धृत करते हैं, यथा -- कार्तवीर्य ( वायु ९४।२०, मत्स्य ४३।२४, ब्रह्माण्ड ३।१८-२०, ब्रह्म १३।१७ ) | ये पुराण ऐल एवं ऐक्ष्वाक वंशों के अन्तिम राजा के नाम भी बताते हैं, यथा— क्रम से सुमित्र एवं क्षेमक । किन्तु अपेक्षाकृत पश्चात्कालीन राजाओं, यथाआन्ध्रों, शुंगों आदि के बारे में इन पुराणों में कोई गाथा या श्लोक नहीं उद्धृत हुए हैं। पार्जिटर महोदय का कहना है ( पृ० १३, 'पुराण टेक्स्ट्स' आदि ) कि प्राचीन भविष्य में गुप्त राजाओं का संकेत मिलता है, किन्तु इस कथन की पुष्टि हमें कोई प्रमाण नहीं प्राप्त होता । प्राचीन भविष्य का निर्माण आपस्तम्ब ( ई० पू० चौथी या पाँचवीं शती) के पूर्व हो चुका था, इससे स्पष्ट है कि मूल रूप में उसमें गुप्तों की ओर किसी प्रकार का संकेत सम्भव नहीं है, क्योंकि गुप्तों का शासन सन् ३२० ई० से आरम्भ होता है। मत्स्य ने गुप्तों का उल्लेख नहीं किया है, वह केवल आन्ध्रों के अधःपतन का उल्लेख करता है । अतः ऐसा समझा जाना चाहिए कि मत्स्य का प्रणयन अथवा संशोधन तीसरी शती के मध्य या अन्त में हुआ होगा, किन्तु यह सम्भव है कि कुछ अध्याय या श्लोक उस तिथि के उपरान्त जोड़े गये हों। जब वायु (९९/३८३), ब्रह्माण्ड ( ३।७४ । १९५ ), विष्णु ( ४१२४ । १८ ) एवं भागवत ( १२।१।३७ ) ने गुप्तों को शासकों के रूप में वर्णित किया तो प्रथम दो ने सम्भवतः ये श्लोक तभी जोड़े जब गुप्त-शासन का आरम्भ मात्र हुआ था और विष्णु एवं भागवत (जो अशुद्ध है) ने सम्भवतः वायु एवं ब्रह्माण्ड की पाण्डुलिपियों से उधार लिया होगा । यह स्पष्ट है कि इन चारों में प्रथम दो लगभग ३२०-३३५ ई० में प्रणीत हुए या संशोधित हुए, और अन्य दो उनसे और बाद । ३९६ किल का 'पुराण पंचलक्षण' नामक ग्रन्थ महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि इसमें पौराणिक विषय का अध्ययन एक नये ढंग से हुआ है। इस ग्रन्थ की जर्मन भूमिका का अंग्रेजी अनुवाद श्री वेंकटेश इंस्टीट्यूट ( तिरुपति) के जर्नल (जिल्द ७, पृ० ८०-१२१ एवं जिल्द ८, पृ० ९-३३ ) में हुआ है । किर्फेल ने पाजिटर के बहुत से मतों से अपना विरोध प्रकट किया है। उनके प्रमुख निष्कर्ष ये हैं-अग्नि एवं गरुड़ के संक्षेप एवं विष्णु में गद्य-विस्तार के रहते हुए भी पुराणों के केवल तीन ही पूर्ण दल हैं, यथा - ब्रह्म एवं हरिवंश, ब्रह्माण्ड एवं वायु तथा मत्स्य के; अन्य पुराण तो उनके छोटे या बड़े अंश मात्र हैं । उपर्युक्त तीन दलों में ब्रह्माण्ड एवं हरिवंश सबसे प्राचीन हैं (ब्रह्माण्ड एवं वायु नहीं, जैसा कि पाजिटर का मत है ) । किर्पेल का अथन है कि ब्रह्माण्ड एवं वायु मौलिक रूप से एक ही पुराण थे, विशेषतः इसलिए कि दोनों के अधिकांश एक-दूसरे से मिलते-जुलते हैं । किर्केल का यह भी कहना है कि पाजिटर महोदय का यह मत भ्रामक है कि वायु एवं ब्रह्माण्ड के संयोजन ( अर्थात् उनमें आगे जो जोड़ दिया गया है) प्राचीन भ (पुराण) से लिये गये हैं (किर्पोल, पू० १८, जिल्द ७, उपर्युक्त जर्नल ), प्रत्युत उधार लिया हुआ विषय किसी अन्य प्राचीन स्वतन्त्र ग्रन्थ से है । किर्केल पाजिटर के इस सिद्धान्त को नहीं मानते कि पुराण प्राकृत भाषा के संस्कृत रूपान्तर हैं और न यही स्वीकार करते कि विष्णु अपने वर्तमान रूप में वायु या ब्रह्माण्ड से बाद का है, ऐसा होते हुए भी कि इसमें पुराणों के पंचलक्षण अपने मौलिक रूप में उपस्थित हैं। पुराणों का १८ प्रकारों में विभाजन, उनका सात्त्विक, राजस एवं तामस में बँटना मौलिक नहीं है, प्रत्युत वे पुराणों के अन्तिम परिष्कृत रूपों के द्योतक मात्र हैं। पाजिटर ने ऐसा विचार किया था कि कोई उद्-पुराण था, जिसने पंच लक्षणों को व्यवस्थित रखा था और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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