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________________ पाजिटर के मत की आलोचना ३९५ दल, तथा दूसरा वह दल जिसमें प्रद्योत, शुंग, आन्ध्र, शक आदि वंशों के पश्चात्कालीन राजा सम्मिलित हैं। प्रथम दल के राजा सम्भवतः प्राचीन भविष्यत्पुराण या किसी अन्य पुराण में उल्लिखित हैं, जैसा कि आपस्तम्ब में आया है, किन्तु दूसरे दल के राजा-गण उस समय नहीं हए थे जब भविष्यस्पराण प्रणीत हआ (ई०पू०५००-४०० के पर्व), प्रत्यत वे आगे के कालों में लिखित पुराणों में ही चचित हो सके। मत्स्य एवं वाय के वचनों से यह बात स्पष्ट हो जाती है।२९ मत्स्य में आया है. इसके उपरान्त मैं ऐड (एल), ऐक्ष्वाक एवं पौरव वंशों के भावी राजाओं की घोषणा करूंगा और इनके साथ मैं उनकी भी घोषणा करूँगा जिनके साथ ये तीनों गणशील अथवा धर्मात्मा वंश नाश को प्राप्त होंगे तथा मैं उन सभी राजाओं का वर्णन करूँगा जो भविष्य (पुराण) में कहे गये हैं। इन लोगों से भिन्न राजा उभरेंगे, यथा--क्षत्र (? क्षत्रिय वर्ग के), पारशव (पारशी जाति या ऐसे लोग जो शूद्र बाप एवं ब्राह्मणी मां से उत्पन्न होते हैं), शूद्र (राजा के रूप में) एवं अन्य जो विदेशी हैं, अन्ध्र, शक, पुलिन्द, चुलिक, यवन, कैवर्त (मछली मारने वाले), आभीर, शबर एवं अन्य, जो म्लेच्छ (जाति) से उद्भूत हैं-इन सभी को मैं क्रम से नाम लेकर घोषित करूँगा। इन (दोनों दलों) में प्रथम है अधिसीमकृष्ण जो अभी जीवित है, और मैं इसके वंश के उन राजाओं का वर्णन करूँगा जो भविष्य (पुराण) में वर्णित हैं।' यह वक्तव्य इसे पूर्णरूपेण स्पष्ट करता है कि प्राचीन भविष्यत्पुराण में ऐल, ऐक्ष्वाक एवं पौरव नामक तीन वंशों के राजा उनके अन्तिम राजा तक उल्लिखित थे, किन्तु पश्चात्कालीन राजा, यथा-आन्ध्र एवं शक, उसमें नहीं चर्चित थे। प्रस्तुत लेखक पाजिटर की इस बात से सहमति रखता है (पृ० ८, भूमिका, 'पुराण टेक्स्ट्स' आदि) कि 'भविष्ये कथितान्' (मत्स्य ५०७७) या 'भविष्ये पठितान्' (वायु ९९।२९२) भविष्य (पुराण) में वर्णित वंशजों की ओर संकेत करते हैं और वे केवल भविष्य में वणित' का ही अर्थ नहीं देते। किन्तु यह बात नहीं समझ में आती कि वे 'भविष्यत्' को 'भविष्य' का बिगड़ा हुआ रूप क्यों मान बैठते हैं। 'भविष्यत्' वैसा ही शुद्ध शब्द है जैसा कि 'भविष्य' क्योंकि बहुत वक्तव्यों में ऐसा प्रयोग देखा गया है, यथा वराह (१७७।३४), मत्स्य (५३३६२) । २९. अत ऊर्ध्व प्रवक्ष्यामि भविष्या ये नुपास्तथा। ऐडेक्ष्वाकान्वये चैव पौरवे चान्वये तथा॥येषु संस्थास्यते तच्च ऐडेक्ष्वाकुकुलं शुभम् । तान्सर्वान् कीर्तयिष्यामि भविष्ये कथितान्नुपान् ॥ तेभ्योपरे पि ये त्वन्ये हत्पत्स्यन्ते नृपाः पुनः। क्षत्राः पारशवाः शूद्रास्तथान्ये ये बहिश्चराः॥ अन्याः (अन्ध्राः) शकाः पुलिन्दाश्च चूलिका यवनास्तथा। कैवर्ताभीरशबरा ये चान्ये म्लेच्छसम्भवाः॥ पर्यायतः प्रवक्ष्यामि नामतश्चैव तान्नुपान्। अषिसोम (सीम?) कृष्णश्चंतेषां प्रथमं वर्तते नृपः। तस्यान्ववाये वक्ष्यामि भविष्ये कथितान् नृपान् ॥ मत्स्य (५०७३-७७)। मिलाइए वायु ९९।२६६-२७० (केवल ये अन्तर पाये जाते हैं, यथा--'पर्यायतः' एवं 'भविष्ये तावतो नपान्' के लिए 'भविष्ये पठितान्', 'वर्षाग्रतः')। 'पारशवाः' (पार्शवः या पर्शवः) सम्भवतः ‘पशु' नामक किसी लड़ाकू जाति के लिए प्रयुक्त हुआ है। देखिए 'पश्र्वादियौषेयाविम्यामणी' (पाणिनि ५।३।११७) जिससे यह प्रकट होता है कि पाणिनि के काल में पर्श यौषय के सदृश 'आयुषजीविसंघ' था। डेरियस के बेहुस्तुन अभिलेख (ई०पू० ५२२-४८६) से प्रकट होता है कि 'पशु' लोग प्राचीन पारसी लोग थे। देखिए डा० डी० सी० सरकार कृत ('सेलेक्ट इंस्क्रिप्शंस्,' जिल्द १, पृ० १-६, जहाँ 'पर्स' एक देश के नाम के रूप में आया है। ऊपर जो अन्य अर्थ दिया हुआ है वह संदर्भ में नहीं बैठ पाता। पुलिन्द लोग विन्ध्य भाग में रहते थे और अशोक के १३ वे अभिलेख में अन्ध्रों के साथ समन्वित हैं। अमरकोश में आया है 'भेदाः किरातशबरपुलिन्दा म्लेच्छजातयः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org For Priva
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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