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________________ ३९२ धर्मशास्त्र का इतिहास प्रामाणिक है और पौराणिक वंशावलियाँ सर्वथा ठीक हैं (आर० जी० भण्डारकर प्रेजेण्टेशन वाल्यूम, पृ० १०७-११३ एवं ए० आई० एच० टी०, अध्याय १०, पृ० ११९-१२५)। इसके अतिरिक्त यह भी कहा जा सकता है कि यह एक सामान्य अनुभूति है कि एक प्रसिद्ध घटना एवं अन्य घटना के बीच के वर्षों का जोड़ बड़ी सरलतापूर्वक स्मरण रखा जा सकता है और मौखिक रूप से सैकड़ों वर्षों तक चला जा सकता है, किन्तु सैकड़ों राजकीय नामों का इस प्रकार चलते जाना सरल नहीं है, कुछ नाम सरलतापूर्वक बीच में ही खिसक जा सकते हैं। और भी, स्वयं मत्स्य, ब्रह्माण्ड एवं वायु का कथन है कि वे इक्ष्वाकु एवं बृहद्रथ के मध्यग केवल प्रसिद्ध राजाओं का ही उल्लेख करेंगे। पौरव वंश में बहुत-से राजा थे, किन्तु सबका उल्लेख नहीं हुआ है। अत: यह सम्भावना है कि पश्चात्कालीन वंशों के बहुत-से राजाओं के नाम भी छूट गये हों (उदाहरणार्थ, मत्स्य २१३।१६ के अनुसार आन्ध्र २९ थे, वायु ९९।३५७ के अनुसार ३०)। केवल राजाओं के शासन-वर्षों को गिन लेने से ही यह नहीं पता चल सकता है कि अमुक वंश का राज्य इतने वर्षों तक चलता रहा। पार्जिटर महोदय को अपने मन में दो बातों (अर्थात् परम्परा एवं पौराणिक वंशावलियों की विश्वसनीयता तथा अत्यधिक प्रसिद्ध घटनाओं के बीच के काल को स्मरण रखने की सुगमता) के साथ महाभारत की तिथि का भी पता चलाना चाहिए था। परीक्षित् एवं नन्द के बीच की अवधि से सम्बन्धित वक्तव्य को पाजिटर महोदय अविश्वसनीय मानते हैं, क्योंकि उनके मत से १०१५ एवं १०५० नामक संख्याएँ असंगत हैं। पुराणों की अधिकांश उक्तियों में कोई-म-कोई असंगति अवश्य देखने में आती है। अत: उन्हें यह देखने का प्रयास करना चाहिए था कि १०१५, १०५० एवं १५०० में कौन-सी संख्या प्राचीनतम एवं उत्तम पाण्डुलिपियों से प्रमाणित होती है, विशेषतः जब इन तीन संख्याओं के संस्कृत पर्यायवाची शब्द, यथा पंचदश, पञ्चाशत् एवं पञ्चशत, लेखकों द्वारा (जो पाण्डुलिपियाँ तैयार करते हैं) गड़बड़ी में पड़ सकते हों और सादृश्य के कारण कुछ के कुछ लिख लिये गये हों। यदि हम कम अवधि वाली संख्या ही लें, अर्थात् १० १५ वर्ष, तो महाभारत को हम १४४० ई० पू० में रखेंगे (नन्द के राज्याभिषेक के वर्ष ई० पू० ४२५ में १०१५ वर्ष जोड़ने से)। बहुत-से पाश्चात्य लेखकों एवं प्रो० एस० एन० प्रधान (क्रॉनॉलॉजी आव ऐंश्यण्ट इण्डिया, कलकत्ता, १९२७, पृ० २४९) ने पौराणिक वक्तव्यों में दोष देखा है, वे उन्हें अव्यावहारिक मानकर छोड़ देते हैं। प्रो० प्रधान ने तीन कुलों के राजाओं को वास्तविक मान लिया है, और विश्वास किया है कि प्रत्येक के लिए २८ वर्ष मध्यम अवधि है, और २८ से गुणा करके महाभारत की तिथि ई० पू० ११५० निश्चित की है। यहाँ पर उनके तर्कों पर विचार करना सम्भव नहीं है। वे यह भूल जाते हैं कि स्वयं पुराणों ने स्पष्ट रूप से कहा है कि उन्होंने केवल मुख्य या महत्त्वपूर्ण राजाओं का ही उल्लेख किया है। और भी, पाजिटर जैसे अन्य लेखक भी हैं जो अन्य देशों की भाँति भारत जैसे देश में भी एक राजा के शासन-काल के लिए १७ या १८ वर्षों का औसत पर्याप्त समझते हैं। हम प्रो० प्रधान के तर्क को स्वीकार करने में असमर्थ हैं। पाश्चात्य लेखकों में अधिकांश, भारतीय विषयों में प्राचीन तिथियाँ निर्धारित करने में संकोच करते हैं या विरक्तता प्रदर्शित करते हैं। पाजिटर महोदय कोई अपवाद नहीं हैं। पाण्डुलिपियों के द्वारा शक्तिशाली समर्थन के रहते हुए भी उपर्युक्त तीन कालावधियों में से किसी एक को सीधे तौर से मान लेने की अपेक्षा वे कुछ ऐसे साधनों का सहारा लेते हैं जो उनके विचित्र जादूगरी के प्रयासों के परिचायक हैं (ए० आई० एच० टी०, पृ० १८०-१८३)। उनकी पद्धति की कुछ व्याख्या एवं परीक्षा आवश्यक है। वर्षों तक राज्य किया। तब शिशुनागों ने ३६० वर्षों तक राज्य किया। इस प्रकार परीक्षित एवं नन्द के राज्याभिषेक की अवधि १४९८ वर्षों की हुई। इसी से वे उक्त अवधि को १५०० वर्षों वाली मानते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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