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पौराणिक अनुशीलन का साहित्य; पाजिटर एवं किर्फल की आलोचना
३९१ १४६); 'सम माइनर पुराणज' (ए० बी० ओ० आर० आई०, जिल्द १९, पृ०६९-७९); 'दि अश्वमेध, दि कॉमन सोर्स ऑव ओरिजिन आव दि पुराण पंचलक्षण एण्ड दि महाभारत' (ए०बी०ओ०आर० आई०, जिल्द ३६, पृ० १९०-२०३, १९५५); 'सम लॉस्ट उपपुराणज' (जे० ए० एस०, कलकत्ता, जिल्द २०, पृ० १५-३८); दास गुप्त की 'इण्डियन फिलॉसफी' जिल्द ३,पृ० ४९६-५११ (ऑन फिलॉसॉफिकल स्पेकूलेशंस आव सम पुराणज़); डा० डी० आर० पाटिल का लेख 'गुप्त इंस्क्रिप्शंस एण्ड पुरानिक ट्रेडिशंस' (डी० सी० आर० आई०,जिल्द २,पृ०२-५८, गुप्ताभिलेखों एवं पुराणों की पंक्तियों की तुलना); प्रो० वी० आर० रामचन्द्र दीक्षितार के ग्रन्थ, यथा-'दि पुराण, ए स्टडी' (आई० एच० क्यू०, जिल्द ८,पृ०७४७-६७) एवं 'पुराण इंडेक्स' (तीन जिल्दों में); डा० ए० डी० पुसल्कर का लेख (प्रोग्रेस आव इण्डिक स्टडीज़ में, १९१७-१९४२, बी० ओ० आर० आई० की रजत-जयन्ती, पृ० १३९-१५२) एवं 'स्टडीज़ इन एपिकस एण्ड पुराणज़ आव इण्डिया' (बी० वी० बम्बई, १९५३); प्रो० डी० आर० मनकड के लेख, युगों पर (पी० ओ०, जिल्द ६, भाग ३-४, पृ०६-१०), मन्वतरों पर (इ० हि० क्वा०, जिल्द १८, पृ० २०८-२३०) एवं बी० वी० (जिल्द ६, पृ० ६-१०) में ; डा० घुर्ये का सभापति-भाषण (ए० आई० ओ० सी०, १९३७, पृ० ९११-९५४); डा० ए० एस् अल्तेकर का लेख (जे० बी० ए० यू०, जिल्द ४, पृ० १८३-२२३); डा० यदुनाथ सिंह, ‘ए हिस्ट्री आव इण्डियन फिलॉसॉफी' (जिल्द १,पृ० १२५-१७७, पुराणों के दर्शन पर); श्री आर० मार्टिन स्मिथ के दो लेख (जे० ए० ओ० एस्०, जिल्द ७७, सं० २, एप्रिल-जून, १९५७ एवं सं०४, दिसम्बर १९५७)।
पाजिटर एवं किर्फेल के महत्त्वपूर्ण निष्कर्षों के विषय में कुछ टिप्पणियाँ देना आवश्यक है। पाजिटर ने आदि काल से महाभारत तक के इतिहास का ढाँचा खड़ा किया है। उन्होंने महाभारत की तिथि ई० पू० ९५० मानी है (ए० आई० एच० टी०, अध्याय १५, पृ० १८२)। उनका मत है कि प्राचीन भारत में दो परम्पराएँ थीं, क्षत्रिय एवं ब्राह्मण। उन्होंने कई बार ब्राह्मणों के ऐतिहासिक ज्ञान के अभाव की ओर संकेत किया है और ऐसा घोषित किया है कि पुराण क्षत्रिय परम्परा के परिचायक हैं। उनके मत से तीन जातीय मूल (जड़ें) थे, मानव (या मान्व, जैसा कि उन्होंने कहा है), ऐल एवं सौधुम्न, जो क्रम से द्रविड़, आर्य एवं मुण्ड का प्रतिनिधित्व करते हैं। उनके मत से, पुराण प्राकृत में लिखे गये ग्रन्थों के संस्कृत रूप हैं और वे ग्रन्थ थे कलियुग के वंशों से सम्बन्धित। बाद के लेखकों ने महाभारत वाली उनकी तिथि नहीं मानी है, क्योंकि तत्सम्बन्धी उनके तर्क न्यायपूर्ण, वस्तुगत एवं पक्षपातरहित नहीं हैं और वे बहुधा आत्मगत धारणाओं से परेशान हो औसत पर अधिक उतर आते हैं। इनके मत से महाभारत का युद्ध नन्दों से १०५० वर्ष पूर्व हुआ था; अर्थात् महाभारत की तिथि है ई० पू० १४७५। पाण्डुलिपियों एवं मुद्रित पुराणों से हमें परीक्षित् के जन्म एवं नन्द के सिंहासनारोहण के बीच के काल में चार अवधियाँ प्राप्त होती हैं, यथा-१०१५ वर्ष (विष्णुपुराण), १०५० वर्ष (वायु, ब्रह्माण्ड एवं मत्स्य की पाण्डुलिपि), १११५ वर्ष (भागवत), १५०० वर्ष (विष्णु एवं मत्स्य की कुछ पाण्डुलिपियाँ)। स्वयं पार्जिटर ने बलपूर्वक तर्क दिया है कि परम्परा
२६. यावत्परीक्षितो जन्म यावन्नन्दाभिषेचनम् । एतद्वर्षसहस्रं तु ज्ञेयं पञ्चदशोत्तरम् ॥ विष्णु (४।२४।३२); भागवत (१२।२।२६) में आया है 'आरभ्य भवतो जन्म... सहस्रं तु शतं पञ्चदशोत्तरम्।' महापद्माभिषेकात्त यावज्जन्म परीक्षितः । एतवर्षसहस्रं तु ज्ञेयं पञ्चाशदुत्तरम् ॥ मत्स्य २७३।३५ (यहां आया है, एवं वर्ष०), वायु ९९। ४१५ (यहां आया है, महादेवाभिषेकातु), ब्रह्माण्ड ३७४।२२७ (यहाँ आया है, महानन्दाभिषेकान्त)। श्रीधर ने भागवत के १२।२।२६ की टोका में कहा है कि नवें स्कन्ध में भागवत ने परीक्षित् के समकालीन मगधराज मार्जारि से आगे के २० राजाओं के शासन-काल के लिए १००० वर्ष माने हैं। इसके उपरान्त ५ प्रद्योतन राजाओं ने १३८
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