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धर्मशास्त्र का इतिहास
उल्लेख है; धर्म के विरुद्ध आचरण करने के प्रतिफल भी वर्णित हैं। पुराणों का सारिवका, राजस एवं तामस भागों में विभाजन है; सात्त्विक एवं राजस पुराण क्रम से हरि एवं ब्रह्मा की महत्ता की प्रशंसा करते हैं, तामस पुराण अग्नि एवं शिव की महत्ता माते हैं, मिश्रित पुराण सरस्वती एवं पितरों की महत्ता गाते हैं। मनु ने केशव से जो प्रश्न किये हैं (मत्स्य० २।२२-२४) वे उन विषयों के परिचायक हैं जो पुराण में कहे जायेंगे, यथा--सृष्टि एवं प्रलय, वंश, मन्वन्तर, वंश्याचरित, विश्व का विस्तार तथा दान, श्राद्ध, वर्णों, आश्रमों, इष्ट एवं पूर्त, देव-मूर्तिप्रतिष्ठापन आदि से सम्बन्धित नियम।
यह स्पष्ट नहीं हो पाता कि अमरकोश में पुराणों की विशेषताओं के विषय में पाँच लक्षणों का उल्लेख क्यों हो गया है। अमरकोश को हम ५ वीं शती के उपरान्त का ग्रन्थ नहीं कह सकते। यह सम्भव है कि उस काल के पूर्व पुराणों की संख्या अधिक नहीं थी, वे तब तक अति वृद्धि को नहीं प्राप्त हो सके थे और चूंकि इतिहास एवं पूराण एक साथ ही पाँचवें वेद के रूप में उपनिषदों द्वारा पूकारे जाते थे, अत: उन दोनों के कुछ विषय समान थे। इतिहास में सम्भवतः सृष्टि, प्रलय, मन्वन्तरों आदि का निरूपण नहीं होता था, उसमें केवल राजाओं के वंशों का वर्णन तथा अतीत के वीरों के साहसिक कमों एवं गाथाओं का उल्लेख होता था। कभी-कभी इतिहास (महाभारत) पुराण की संज्ञा पा लेता है और कुछ वर्तमान पुराण अपने को इतिहास कह उठते हैं। उदाहरणार्थ, वायुपुराण (१०३।४८, ५१) एक ही संदर्भ में अपने को इतिहास एवं पुराण दोनों कहता है। ब्रह्मपुराण अपने को पुराण एवं आख्यान दोनों कहता है (२४५।२७ एवं ३०)। महाभारत जो अपने को सामान्यतः इतिहास कहता है (यथा आदि १११९, २६, ५४) या इतिहासों में सर्वश्रेष्ठ कहता है, तब भी अपने को 'आख्यान' (आदि० २।३८८-८९), 'काव्य' (आदि० २।३९०), 'कार्णवेद' (आदि० ११२६४) एवं 'पुराण' (आदि० १।१७) कहता है। इससे प्रकट होता है कि प्रारम्भिक रूप में दोनों के बीच में केवल एक झीनी चादर जैसा अन्तर था। पुराण को 'पञ्चलक्षण' रूप में परिभाषित करते हुए अमरकोश एवं कुछ पुराणों ने उन विषयों की ओर संकेत कर दिया है जो पुराणों को इतिहास एवं संस्कृत साहित्य की अन्य शाखाओं से भिन्न करते हैं। यह हमने बहुत पहले ही देख लिया है कि आपस्तम्ब के पूर्व के पुराण एवं भविष्यत्पुराण में न केवल सर्ग एवं प्रतिसर्ग का ही उल्लेख था, प्रत्युत स्मृति-सम्बन्धी विषय भी सम्मिलित थे। पुराणों एवं अमरकोश में दी हुई परिभाषा से यह निष्कर्ष निकालना नहीं चाहिए कि प्राचीन पुराणों में केवल पाँच ही विषय निर्धारित थे, जैसा कि किर्फेल साहब विश्वास करते हैं (देखिए किर्फल का आइन्लीतुंग (पृ०
२१. मैक्समूलर ('इण्डिया, ह्वाट कैन इट टीच अस', पृ० ३२८, १८८२) ने लिखा है कि अमरकोश का चीनी अनुवाद ५६१-५६६ ई० में हुआ। क्षीरस्वामी की टीका युक्त अमरकोश के सम्पादन में श्री ओक महोदय ने इसे चौथी शती का माना है। होइन्र्ल (जे० आर० ए० एस०, १९०६, पृ.० ९४०-९४१) ने एक हलके एवं खींचातानी वाले प्रमाण के आधार पर अमरकोश को ६२५ ई० एवं ९५० ई० के मध्य में कहा है।
२२. इमं यो ब्राह्मणो विद्वानितिहासं पुरातनम् । शृणुयाच्छ्रावयेद्वापि तथाध्यापयतेऽपि च ॥...धन्यं यशस्यमायुष्यं पुण्यं वेदैश्च संमतम् । कृष्णद्वैपायनेनोक्तं पुराणं ब्रह्मवादिना॥ वायु(१०३१४८-, ५१), और देखिए वायु १०३।५६. (इतिहास) एवं ५८ (पुराण), ब्रह्माण्ड ४।४।४७, ५० (जो वायु १०३।४८ एवं ५१ ही है)।
२३. जयो नामेतिहासीयं श्रोतव्यो विजिगीषुणा। उद्योग ०१३६।१८; जयो नामेतिहासोयं श्रोतव्यो मोक्षमिच्छता । स्वर्गारोहणिक० (५।५.१); इतिहासोत्तमादस्माज्जायन्ते कविबुद्धयः। आदि० (२२३८५) । अनाश्रित्येदमाख्यानं कथा भुवि न विद्यते। आदि० २।३७ एवं ३८८; इदं कविवरः सर्वैराख्यानमुपजीव्यते ॥ आदि० २।३८९ ।
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