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पुराण-उपपुराणों का अन्तर, प्रक्षेप, ५ या १० लक्षण
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आई० (भण्डारकर ओरिएण्टल रिचर्स इंस्टीट्यूट, पूना) द्वारा प्रकाशित हुआ है। अत: बहुत-से निष्कर्ष, जो पुराणों के प्रचलित प्रकाशित संस्करणों पर या पाण्डुलिपियों पर आधारित हैं, केवल अनुमानित ही मानने चाहिए, क्योंकि वे आगे चलकर भ्रामक एवं त्रुटिपूर्ण सिद्ध हो सकते हैं। विण्टरनित्ज महोदय ने अपनी पुस्तक 'हिस्ट्री आव इण्डियन लिटरेचर' (अंग्रेजी अनुवाद, कलकत्ता, जिल्द १, पृ० ४६९) में जो कहा है, यथा-'महाभारत में प्रत्येक विभाग, इतना ही नहीं, प्रत्युत प्रत्येक श्लोक की तिथि का निर्णय पृथक् रूप से होना चाहिए।' यही बात हम पुराणों के विषय में और अधिक बल देकर कह सकते हैं, विशेषत: ऐतिहासिक एवं तुलनात्मक प्रयोजनों के विषय में, जब हम किसी विभाग या पंक्ति का प्रयोग करना चाहते हैं।
यह ठीक है कि पुराणों एवं कुछ प्राप्त उपपुराणों में बहुत-सी प्राचीन गाथाएँ एवं परम्पराएँ पायी जाती हैं किन्तु ये आख्यान आदि इस प्रकार बहुत-से हाथों में पड़कर दूषित हो गये हैं या इतने बढ़ गये हैं, क्योंकि सम्प्रदायविशेष ने अपनी मान्यताओं को उभारने के लिए अथवा अपने सम्प्रदाय की पूजा-पद्धति को श्रेष्ठता प्रदान करने के लिए आख्यानों एवं परम्पराओं में इतनी वृद्धि कर डाली है कि उनसे तथ्य निकालने के पूर्व तथा प्राचीन एवं मध्यकाल के विश्वासों एवं भारतीय समाज के सामान्य स्वरूप को जानने के लिए हमें बहुत सतर्क रहना पड़ेगा।
हमारे पास अभी तक कोई भी पुष्ट प्रमाण नहीं प्राप्त हो सका है जिसके आधार पर हम विष्णुधर्मोत्तर को छोड़कर किसी अन्य उपपुराण को ८ वीं या ९ वीं शती के पूर्व प्रणीत जान सकें। पुराणों के विषय में भी बहुत-से क्षेपकों का अनाचार एवं अतिचार कम नहीं है। १८ पुराणों, उनकी संख्या एवं विषयों के बारे में बहुत-से भयंकर क्षेपक हैं। किन्तु पुराणों में अति प्राचीन बातें हैं और वे उपपुराणों की अपेक्षा अधिक विश्वसनीय हैं, क्योंकि उनके उद्धरण ८वीं एवं ९वीं शताब्दी के लेखकों या उनसे भी पुराने लेखकों की कृतियों में मिल जाते हैं।
___ अमरकोश ने 'इतिहास' को 'पुरावृत्त' (अर्थात् अतीत में जो घटित हुआ वह) एवं 'पुराण' को 'पञ्चलक्षण (अर्थात् जिसमें पांच लक्षण या विशेषताएं हों) माना है। निःसंदेह यह ठीक ही है कि कुछ पुराण 'पुराण' को 'पञ्चलक्षण' कहते हैं और उन पांच लक्षणों को यों कहते हैं-सर्ग (सृष्टि), प्रतिसर्ग (प्रलय के उपरान्त पुनः सृष्टि), वंश (देवों, सूर्य, चन्द्र एवं कुलपतियों के वंश), मन्वन्तर (काल की विस्तृत सीमावधियाँ), वंशानुचरित या वंश्यानुचरित (सूर्य, चन्द्र एवं अन्य वंशों के उत्तराधिकारियों के कार्य एवं इतिहास)। भागवत के अनुसार पुराणों में दस विषयों का उल्लेख है। उसमें यह भी कहा गया है कि कुछ लोगों के मत से केवल पांच विषयों की चर्चा है। भागवत के दस विषय हैं-सर्ग, विसर्ग (नाश के उपरान्त विलयन या सृष्टि), वृत्ति (शास्त्र द्वारा व्यवस्थित या स्वाभाविक जीवन-वृत्तियाँ अर्थात् जीने के साधन), रक्षा (जो लोग वेदों से घृणा करते हैं उनका अवतारी देवता नाश करते हैं), अन्तर (मन्वन्तर), वंश, वंश्यानुचरित, संस्था (लय के चार प्रकार), हेतु (सृष्टि का कारण, यथा आत्मा, जो अविद्या के वश में होकर कर्म एकत्र करता है) एवं अपाश्रय (आत्माओं का आश्रय, अर्थात् ब्रह्म)। मत्स्यपुराण ने पुराणों की अन्य विशेषताओं की चर्चा की है, यथा-सभी पुराणों में मनुष्यों के चार पुरुषार्थों का
२०. पुराणलक्षणं ब्राह्मन् ब्रह्मर्षिभिर्निरूपितम् । शृणुष्व बुद्धिमाश्रित्य घेदशास्त्रानुसारतः॥ सर्गोस्याथ विसर्गश्च वृतिरक्षान्तराणि च ॥ वंशो वंश्यानुचरितं संस्था हेतुरपाश्रयः। वशभिलक्षणेर्युक्तं पुराणं तद्विदो विदुः। केचित्पंचविषं ब्रह्मन् महवल्पव्यवस्थया ॥ भागवत १२१७४८-१०, ११-१९ तक के श्लोकों में बस लक्षणों का अर्थ है: हेतु वोऽस्य सर्गावरविद्याकर्मकारकः । ये चानुशयिनं प्राहुरव्याकृतमुतापरे ॥ व्यतिरेकान्वयो यस्य जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तिषु । मायामयेषु तद् ब्रह्म जीववृत्तिष्वपाश्रयः॥ भागवत (१२।७।१८-१९)।
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