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पुराणों के पंच लक्षण. या वर्णनीय विषय
३८९ २२, पुराण पञ्चलक्षण); जर्नल आव वेंकटेश्वर ओ० आई०, जिल्द ७ एवं पृ० ९४, (जहाँ किर्फेल का मत दिया हुआ है)। केवल इतना ही कहा जा सकता है कि पाँच विषय ऐसे थे जो पुराणों को साहित्य की अन्य शाखाओं से पृथक सिद्ध करते थे और विशेषतः इतिहास से, जो इसका सजातीय था। या यह भी हो सकता है कि ये पांच लक्षण पुराणों के लिए आदर्श रूप में निर्धारित किये गये थे और पुराण-वर्ग के प्रारम्भिक प्रतिनिधि ग्रन्थों में ये पाँच लक्षण (आप० ध० सू० के पूर्व) नहीं पाये जाते थे।
विद्यमान पुराणों में पांच से अधिक विषय पाये जाते हैं। कुछ पुराण इन पाँच विषयों को स्पर्श मात्र करते हैं और अन्य विभिन्न विषयों पर विशद वर्णन उपस्थित करते हैं। केवल कुछ पुराण ही पाँच लक्षणों पर प्रभूत प्रकाश डालते हैं। आज के महापुराणों के विस्तार के तीन प्रतिशत से कम ही अंश में 'पंचलक्षण' का विवरण समाप्त हो जाता है। जितने पुराण हैं उनमें केवल विष्णुपुराण ही पंचलक्षण' परिभाषा के अनुसार सम्यक् ठहरता है, किन्तु इसमें कुछ अन्य विषय भी उल्लिखित हैं। यदि गणना की जाय तो पता चलेगा कि विद्यमान प्रमुख १८ पुराणों में लगभग १,००,००० श्लोक ऐसे हैं, जो व्रत, श्राद्ध, तीर्थ एवं दान के चार विषयों पर प्रभूत प्रकाश डालते हैं। बहुत-से पुराणों में समान अध्यायों एवं विषयों का समावेश पाया जाता है (यथा मत्स्य एवं पद्म, वायु एवं ब्रह्माण्ड में लम्बे-लम्बे अंश एक-दूसरे से लिये गये हैं। यह सम्भव है कि आज के प्रमुख पुराण आदि काल के पुराणों के, जो सम्भवतः उन दिनों संख्या में १८ नहीं थे और याज्ञवल्क्य-स्मृति से पहले प्रणीत हुए थे, एकपक्षीय एवं वृद्धिप्राप्त प्रतिनिधि मात्र हों। आज हमें जो कुछ ज्ञात है, उसके आधार पर यह कहना सम्भव नहीं है कि आदि काल में याज्ञवल्क्य ० के पूर्व पुराण क्या थे और उनमें किन-किन विषयों का समावेश होता था। १८ की संख्या सम्भवतः इसलिए प्रसिद्ध हुई कि महाभारत के सम्बन्ध में कई बातों में वह महत्त्वपूर्ण थी-महाभारत १८ दिनों तक चलता रहा, उसमें १८ अक्षौहिणी सेनाएँ लड़ी थीं, महाभारत में १८ पर्व हैं और गीता में भी १८ अध्याय हैं।२५
पुराणों को कई श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है, यथा--(१) ज्ञान-कोशीय, यथा अग्नि, गरुड़ एवं नारदीय; (२) विशेषतः तीर्थ से सम्बन्धित, यथा पद्म, स्कन्द एवं भविष्य ; (३) साम्प्रदायिक, यथा लिंग, वामन, मार्कण्डेय; (४) ऐतिहासिक, यथा वायु एवं ब्रह्माण्ड। सम्भवत: वायु, ब्रह्माण्ड, मत्स्य एवं विष्णु विद्यमान पुराणों में सबसे प्राचीन हैं, यद्यपि उनमें भी समय-समय पर प्रभूत वृद्धियाँ होती रही हैं।
____ सात पुराणों में ऐतिहासिक सामग्रियाँ पायी जाती हैं, यथा महाभारत तक के प्राचीन वंश तथा महाभारत से आगे आन्ध्रों एवं गुप्तों के अभ्युदय तक के वंश; ये सात पुराण हैं-वायु (९९।२५०-४३५), विष्णु (४।२०।१२ से
२४. उदाहरणार्थ, मत्स्य अध्याय ५५ एवं ५७-६० सर्वथा पद्म के ५।२४।६४-२७८ हैं, मत्स्य ६२-६४= पद्म ५।२२।६१-१६४, मत्स्य ६९-७०= पद्म ५।२३।२-१४६, मत्स्य ७१।७२ पद्म ५।२४।१-६४, मत्स्य ७४-८०= पद्म ५।२११२१५-३२१, मत्स्य ८३४९२=पमः ५।२११८१-२.१३ आदि। किर्फेल ने 'पुराण पञ्चलक्षण' (तथा जिल्द ७,१०८४-८६, जेवी मो० आई०.) में ब्रह्माण्ड एकं वामु के एक अध्याय में समानता प्रदर्शित की है और टिप्पणी की है कि ब्रह्माण्ड कुछ बातों में (१॥२७, जिसमें १२.९ श्लोक हैं तथा २०२१-५८ जिसमें २१४१ श्लोक हैं) वायु से नहीं मिलता, वायु के २७०४ श्लोक ब्रह्माण्ड से किसी प्रकार की समानता नहीं प्रकट करते (देखिए पुराण पंचलक्षण, पृ० १३ एवं जे० वी० ओ० आई०, जिल्द ७, १९४६, १०८७)। किर्फेल ने ब्रह्माण्ड एवं वायु के समान अध्यायों की एक तालिका प्रस्तुत की है (पृ० १५-१६ एवं जिल्द ७, पृ० ८८-९०, जे० वी० ओ० आई०)।
२५. देखिए ओट्टो स्टीन का. १८ संख्या सम्बन्धी लेख. (पूना ओरिएण्टलिस्ट, जिल्द १, पृ०१-३७)।
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