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धर्मशास्त्र का इतिहास
२।२८-७६), नारदीय (जिसमें ब्रह्म से ब्रह्माण्ड तक के सभी १८ पुराणों के विषयों पर १८ अध्याय हैं, ११९२ - ३०-३१ से लेकर १।१०९ तक) ने की है। वायुपुराण को छोड़ कर अन्य प्रमुख पुराणों की संख्या के विषय में कोई मतभेद नहीं है ।
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पुराणों-सम्बन्धी प्रश्न और जटिल हो उठता है जब हम कुछ पुराणों में वर्णित उपपुराणों के नाम पाते हैं, यद्यपि कुछ पुराण उनकी चर्चा नहीं करते । उदाहरणार्थ, मत्स्य ( ५३।५९-६२ ) ने नारसिंह, नन्दी, आदित्य एवं साम्ब को उपपुराणों के नाम से पुकारा है, उसमें यह भी व्यक्त है कि नारसिंह का विस्तार १८,००० श्लोकों तक हो गया और उसने पद्मपुराण द्वारा उद्घोषित नृसिंह अवतार वर्णन विस्तारित कर दिया है । कूर्म ( १।१।१६-२० ), पद्म (४।१११।९५-९८), देवीभागवत ( १।३।१३-१६) ने अठारह उपपुराणों के नाम दिये हैं। कुछ उपपुराणों के नाम प्रमुख पुराणों के नाम के समान ही हैं, यथा — स्कन्द, वामन, ब्रह्माण्ड एवं नारदीय । प्रो० हजा ( उपपुराण, जिल्द १ ) के अनुसार उपपुराणों की संख्या १०० है । बहुत ही कम उपपुराण प्रकाशित हो सके हैं, और जो प्रकाशित हैं उनके विषय प्रमुख पुराणों के विषयों से बहुत सीमा तक मेल रखते हैं और सभी 'पञ्च-लक्षण' नामक पुराण - परिभाषा को असत्य ठहराते हैं । ऐसा पहले ही व्यक्त किया जा चुका है कि सभी प्रमुख अठारह पुराणों के श्लोकों की संख्या ४ लाख कही गयी है।" यह द्रष्टव्य है कि इस संख्या में उपपुराणों के श्लोकों की संख्या सम्मिलित नहीं है और न किसी पुराण में ऐसा आया है कि ४ लाख की श्लोक संख्या में उपपुराणों के श्लोक भी सम्मिलित हैं । मत्स्य एवं कूर्म ने उपपुराणों के विषय में जो टिप्पणी दी है, उस पर ध्यान देना आवश्यक है । मत्स्य (५३।५८-५९ एवं ६३; हेमाद्रि, व्रत, भाग १, पृ०२१-२२ ) के अनुसार सभी उपपुराण प्रमुख पुराणों के उपभेद हैं; वहाँ यह बलपूर्वक कहा गया है - 'यह जान लो कि जो अठारह पुराणों से स्पष्ट रूप से पृथक् घोषित है वह उन्हीं से उत्पन्न भी हुआ है ।"" कूर्म भी अस्पष्ट ही है, उसमें आया है कि मुनियों १८ पुराणों का अध्ययन
१७. पुराणं सर्वशास्त्राणां प्रथमं ब्रह्मणा स्मृतम् । अनन्तरं च वक्त्रेभ्यो वेदास्तस्य विनिर्गताः ॥ पुराण मेकमेवासीत्तदा कल्पान्तरेऽनघ । त्रिवर्गसाधनं पुण्यं शतकोटिप्रविस्तरम् ॥ प्रवृत्तिः सर्वशास्त्राणां पुराणस्याभवत्ततः । कालेनाग्रहणं दृष्ट्वा पुराणस्य ततो नृप । व्यासरूपमहं कृत्वा संहरामि युगे युगे । चतुर्लक्षप्रमाणेन द्वापरे द्वापरे सदा । तदष्टादशधा कृत्वा भूर्लोकेऽस्मिन् प्रकाश्यते । अद्यापि देवलोकेऽस्मिन् शतकोटिप्रविस्तरम् ॥ तदर्थोत्र चतुर्लक्षं संक्षेपेण निवेशितम् । पुराणानि दशाऽष्टौ च सांप्रतं तदिहोच्यते ॥ मत्स्य ( ५३।३ - ११ ) ; पद्म ( ५ | १/४५-५२ ) में मत्स्य के ये सभी श्लोक हैं। वायु (१।६०-६१ ) एवं ब्रह्माण्ड (१।१।४०-४१ ) में प्रथम श्लोक पाया जाता है। ब्रह्मपुराण (२४५।४) में आया है, 'आद्यं ब्राह्माभिधानं च सर्ववाञ्छाफलप्रदम् ।' विष्णुपुराण (३।६।२० ) में आया है 'आद्यं सर्वपुराणानां पुराणं ब्राह्ममुच्यते ॥' देवीभागवत (१।३।३) ने मत्स्य को प्रथम स्थान दिया है ।
१८. उपभेदान् प्रवक्ष्यामि लोके ये संप्रतिष्ठिताः । पाद्ये पुराणे यत्रोक्तं नासिहोपवर्णनम् ॥ तचाष्टादश साहस्रं नारसिंहमिहोच्यते । अष्टादशभ्यस्तु पृथक् पुराणं यत्प्रदिश्यते । विजानीध्वं द्विजश्रेष्ठास्त देतेभ्यो विनिर्गतम् ।। मत्स्य ५३।५८-५९ एवं ६३ ( हेमाद्रि, व्रत, भाग १, पृ० २१-२२ द्वारा उद्धृत) । ये इलोक स्कन्द ( प्रभासखण्ड २।७९-८३) में भी आये हैं । कृत्यरत्नाकर ( पृ० ३२) ने व्याख्या की है, 'विनिर्गतमुद्भूतम् । यथा कालिकापु राणात् । ' प्रो० हजा ने (स्टडीज आदि, जिल्द १, पृ० १६, टिप्पणी ३३ ) में परिभाषाप्रकाश ( पृ० १५) का उद्धरण दिया है 'एतान्युपपुराणानि पुराणेभ्य एव निर्गतानीति याज्ञवल्क्येन पुराणत्वेन संगृहीतानि', और टिप्पणी की है कि इससे प्रकट होता है कि उपपुराण याज्ञवल्क्य को विदित थे। प्रो० हजा यहाँ भ्रम में पड़ गये हैं, उनकी टिप्पणी
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