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उपपुराणों का रचनाकाल
३८५ करने के उपरान्त उनके संक्षिप्त संस्करण रूप में उपपुराण बनाये । विभिन्न ग्रन्थों की उपपुराण-सूचियाँ, जिनमें अधिकांश प्रो० हजा ने अपने उपपुराण-सम्बन्धी लेख (ए० बी० ओ० आर० आई०, जिल्द २१, पृ० ४०-४८) एवं 'स्टडीज़' (पृ० ४-१३) में रखी हैं, एक-दूसरे से मेल नहीं रखतीं। मत्स्य० मे केवल चार उपपुराणों के नाम गिनाये हैं, अतः ऐसा सोचना कि उस श्लोक के समावेश के समय तक केवल चार ही उपपुराण थे, अतार्किक नहीं है। यह भी कहा जा सकता है कि उस समय तक केवल उन चार ही को उपपुराण की महत्ता प्राप्त हो सकी थी। बहुत-से उपपुराण पश्चात्कालीन हैं। नरसिंह, विष्णुधर्मोत्तर, देवी जैसे थोड़े से उपपुराण सम्भवतः ७ वीं या ८ वीं शती के हैं। प्रो० हजा ने १८ उपपुराणों के निर्माण-काल को ६५०-८०० ई० के बीच रखा है (ए० बी० ओ० आर० आई०, जिल्द २१, पृ० ५१ एवं स्टडीज़ इन उपपुराणज', जिल्द १)। उन्होंने यह माना है (पृ० १४) कि उपपुराणसाहित्य में बहुत-से ग्रन्थ अपेक्षाकृत बाद के हैं, किन्तु उन्होंने बड़े साहस के साथ उद्घोष किया है कि उपपुराणों का आरम्भ गुप्त-काल के लगभग हो चुका था। इस उद्घोष के लिए हमारे पास कोई भी प्रमाण नहीं है। उपपुराणों के प्रणयन की तिथियों पर लम्बा विवेचन यहाँ अनावश्यक है। हमें जानना चाहिए कि जब प्रमुख १८ पुराणों ने अपना आज का रूप पा लिया, उन दिनों उपपुराणों की संख्या छोटी थी, वे प्रमुख पुराणों के संक्षिप्त रूप माने जाते थे। वे पुराण, जिन्होंने उपपुराणों का उल्लेख किया है, ऐसा नहीं कहते कि वे दैवी प्रेरणा से युक्त व्यास द्वारा प्रणीत हुए (प्रत्युत किन्हीं मुनियों द्वारा, जैसा कि कूर्म का कथन है), आरम्भिक रूप में उन्हें १८ पुराणों जैसी प्रामाणिकता नहीं प्राप्त थी। सौर (जो स्वयं एक उपपुराण है) उपपुराणों को खिल कहता है (९।५) । स्मृतितत्त्व (१५२०-१५७० ई०) या वीरमित्रोदय (१७ वीं शती के पूर्वार्ध में) जैसे मध्यकालीन निबन्धों ने ही (जो महापुराणों एवं उपपुराणों से कई शतियों के उपरान्त लिखे गये, जिनके लेखकों को इन दो प्रकारों वाले पुराणों के काल की दूरी का ज्ञान नहीं था) पुराणों को धर्म का मूल माना है (याज्ञवल्क्यस्मृति में) और वे ही ऐसा कह सकते हैं कि
सर्वथा त्रुटिपूर्ण है। इस वाक्य में जो कुछ है उसका यही अर्थ है कि वीरमित्रोदय ने १७ वीं शती (याज्ञवल्क्य के लगभग १५०० वर्षों के उपरान्त) में ऐसा विचार किया कि याज्ञ० ने अपनी स्मृति (याज्ञ० ११३) के 'पुराण' शब्द में 'उपपुराणों' को भी रखा। यह मित्र मिश्र का मत है। यह कोई आवश्यक नहीं है कि हम इसे मान; हमें इससे कोई अनुमान निकालने की आवश्यकता नहीं है। धर्म-साधन के रूप में पुराण को ही याज्ञ० ने माना है, किन्तु उनके समय में कितने पुराण प्रणीत हो चुके थे, इस विषय में वे पूर्णतया मौन हैं। उनके समय में तीन से अधिक पुराण थे, ऐसा सिद्ध करने के लिए हमारे पास कोई प्रमाण नहीं है। ऐसा सोचना असम्भव है कि उन्होंने 'पुराण' शब्द के अन्तर्गत उपपुराणों को भी रखा है, और वह भी केवल इस बात पर कि कुछ उपपुराणों की रचना सन् १००० ई० के पूर्व हो चुकी थी।
१९. अन्यान्युपपुराणानि मुनिभिः कथितानि तु । अष्टादश पुराणानि श्रुत्वा संक्षेपतो द्विजाः ॥ कूर्म० (१११११६)। यह और आगे वाले श्लोक, जिनमें १८ उपपुराणों का उल्लेख है, हेमाद्रि (व्रत, भाग १, पृ० २१), रघुनन्दन (मलमासतत्त्व, पृ० ७९२-७९३), मित्र मिश्र (परिभाषाप्रकाश, पृ० १३-१४, जो वीरमित्रोक्य का एक अंश है) तथा अन्य मध्यकालीन लेखकों द्वारा उद्धृत हैं। ये लेखक १५ वीं शती के उपरान्त के हैं, केवल हेमाद्रि १३ वीं शती के उसरार्ष का है। ऐसा कहना कि ये श्लोक हेमाद्रि में क्षेपक रूप में आ गये हैं, ठीक भी हो सकता है। यह द्रष्टव्य है कि रघुनन्दन ने पहले स्पष्ट रूप से नारसिंह , नन्दी, आदित्य एवं कालिका नामक चार उपपुराणों के नाम लिये हैं और तब कूर्म ० से १८ उपपुराणों के नाम उद्धृत किये हैं।
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