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________________ पुराणों का विषय-विवेचन एवं गणना प्रो० ए० के० नारायण ने एक पुस्तक लिखी है जो अभी हाल में छपी है । उसका नाम है 'दी इण्डो-ग्रीक्स' (आक्सफोर्ड, १९५७) । इस पुस्तक में युगपुराण के कुछ कठिन वाक्यों पर सुन्दर टिप्पणियाँ दी हुई हैं। उन्होंने यह बताया है कि कर्णपर्व में यवन लोग सर्वत्र म्लेच्छों से भिन्न एवं वीर कहे गये हैं ( कर्णपर्व ४५ । ३६) । मत्स्य (५३।३-११), वायु ( १/६०-६१ ), ब्रह्माण्ड (१।१।४० - ४१), लिंग ( ११२।२), नारदीय (१।९२। २२-२६), पद्म (५।१।४५-५२) में आया है कि पुराण मौलिक रूप से एक ही था और ब्रह्मा ने सर्वप्रथम इसके विषय में विचार किया, इसके उपरान्त उनके अधरों से वेद निकले। मौलिक रूप में पुराण में एक सौ करोड़ श्लोक थे तथा व्यास ने इसका सार ४ लाख श्लोकों में प्रत्येक द्वापर युग में घोषित किया। पुराणों की कोई प्राचीन परम्परा थी आरम्भ में केवल एक ही पुराण था, जो कल्पना मात्र है, यह सब कुछ निश्चितता से कहना सम्भव नहीं है। ऊपर हमने देख लिया है कि बहुत प्राचीन काल में ( तैत्तिरीय आरण्यक के काल में ) पुराण बहुवचन में प्रयुक्त होते थे । अतः यह कहा जा सकता है कि वर्तमान कालिक पुराण प्राचीन पुराणों के उत्तराधिकारी मात्र हैं, यद्यपि प्राचीन पुराणों के विषय में हम कुछ भी नहीं के बराबर जानते हैं । ३८१ पुराणों की ( आगे चलकर एवं स्वयं पुराणों द्वारा घोषित महापुराणों की) संख्या परम्परा से अठारह है। ये कतिपय पुराणों में वर्णित हैं, यथा-- विष्णु ( ३।६।२१ - २३), वराह ( ११२।६९-७२), लिंग ( ११३९।६१-६३), मत्स्य (५३।११), पद्म ( १०/५१-५४), भविष्य ( १ | ११६१-६४ ), मार्कण्डेय ( १३४।७-११), अग्नि ( २७२), भागवत (१२।१३।४-८), वायु (१०४) २- १०), स्कन्द ( प्रभासखण्ड, २।५-७ ) । अठारह नामों एवं उनके विस्तार तथा विषयों के बारे में अन्तर मिलता है। मत्स्य ( ५१।१८-१९), अग्नि ( २७२।४-५ ), नारदीय ( १।९२।२६-२८ ) ने वायु को १८ में चौथा माना है, जब कि अधिकांश पुराण शिवपुराण को चौथे स्थान पर रखते हैं। स्कन्द (प्रभास खण्ड २।५ एवं ७) ने चौथे स्थान पर शिव को रखा है न कि वायु को और वायवीय ( सम्भवत: ब्रह्माण्ड ) को अन्तिम स्थान पर । देवीभागवत में एक श्लोक आया है जिसमें १८ पुराणों के प्रथम अक्षर आये हैं और वहाँ शिवपुराण नहीं है । " सोरपुराण (९।५-१२ ) की १८ वाली सूची में वायु चौथे स्थान पर है (यहाँ शिव नहीं है) और ब्रह्माण्ड अन्त में । सूतसंहिता ( १।१।७-११) ने १८ पुराणों के नाम दिये हैं, वायु को छोड़ दिया और उसके स्थान पर शिवपुराण को रखा है। दानसागर ने अपनी भूमिका के श्लोकों ( ११-१२, पृ० २-३ ) में वायवीय एवं शैव को पृथक्-पृथक् रखा है। हेमाद्रि ( दान, भाग - १, पृ० ५३१ ) द्वारा उद्धृत कालिकापुराण के श्लोकों में शिव, कालिका, सौर तथा वह्निज (आग्नेय, जो वास्तविक है) प्रमुख अठारह पुराणों में परिगणित हैं। डा० ए० डी० पुसल्कर की धारणा है कि वायु को ही अठारह पुराणों में रखा जाना चाहिए न कि शिवपुराण को ।" अलबरूनी ने अपने ग्रन्थ १५. मयं भद्वयं चैव ब्रत्रयं वचतुष्टयम् । अनापलंग कूस्कानि पुराणानि पृथक् पृथक् ।। देवीभागवत ( १ | ३1२) । मद्वय मत्स्य, मार्कण्डेय; भाय भविष्य, भागवत; ब्रत्रयं ब्रह्म, ब्रह्मवैवर्त, ब्रह्माण्ड; वचतुष्टय वराह, वामन, वायु, विष्णु अ, ना, प, लिं, ग क्रम से अग्नि, नारदीय, पद्म, लिंग, गरुड़; कू कूर्म; एक स्कन्द | विल्सन ने विष्णु के अनुवाद की भूमिका में लिखा है कि उनकी वराह वाली पाण्डुलिपि में गरुड़ एवं ब्रह्माण्ड के नाम नहीं आये हैं, प्रत्युत वायु एवं नरसिंह के नाम १८ की सूची में हैं । अवश्य ही यह पाण्डुलिपि इस विषय में विचित्र है । १६. डा० ए० डी० पुसल्कर ( विद्या भवन सीरीज, बम्बई, १९५५) द्वारा लिखित 'स्टडीज इन दि एपिक्स एण्ड पुराणच आव इण्डिया' (अध्याय २, पृ० ३१-४१ ) । मत्स्य ( ५३।१८-१९ ) में वही वर्णित है जो वायुपुराण में लिखित है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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