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पौराणिक विषयों का प्राचीन उल्लेख
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शंकराचार्य ने वेदान्तसूत्र के भाष्य में पुराणों के विषयों एवं उनके उन विशिष्ट स्वरूपों का उल्लेख अधिकतर किया है जो आज पुराणों में यथावत् पाये जाते हैं, यद्यपि उन्होंने किसी पुराण का नाम नहीं लिया है। उदाहरणार्थ, उनका कथन है कि पुराण द्वारा यह प्रतिष्ठापित है कि अतीत एवं भावी कल्पों की संख्या के विषय में कोई सीमा नहीं है (वे० सू० २।१।३६) । वे० सू० (२१1३1३० ) में आचार्य शंकर ने दो श्लोक उद्धृत किये हैं जिन्हें वे स्मृतिमूलक मानते हैं, किन्तु वास्तव में वे विष्णुपुराण (१।५।५९-६० ) के हैं और मनु एवं याज्ञ० जैसी प्राचीन स्मृतियों में नहीं पाये जाते । वे० सू० ( ३ । १ । १५ : अपि च सप्त) में भाष्य का कथन है कि वे, जिन्होंने पुराण पढ़े हैं। या उन्हें जानते हैं, ऐसा कहते हैं कि रौरव आदि सात नरक हैं, जहाँ पापी लोग दुष्कर्म करने के फलस्वरूप जाते हैं | विष्णुपुराण ने तामित्र, रौरव आदि सात नरकों का उल्लेख किया है, जहाँ वेदविरोधी, यज्ञविरोधी एवं उचित धर्माचरण न करने वाले जाते हैं। मनु (४।८७-९०), याज्ञ० ( ३।२२२ - २२४), विष्णुधर्मसूत्र ( ४३।२-२२ ) ने २१ नरकों का उल्लेख किया है और सभी पुराणों ने २१ या इससे अधिक नरकों की ओर संकेत किया है। इस विषय में हमने इस ग्रन्थ के प्रथम खंड में ही पढ़ लिया है । वे० सू० ( १।३।२६ एवं ३३ ) में भाष्य ने कहा है कि वैदिक मन्त्रों, अर्थवाद - वाक्यों, इतिहास एवं पुराण तथा प्रचलित विश्वास के आधार पर लोग समझ सकते हैं कि देवों को शरीर प्राप्त हैं । वे० सू० (२1१1१ ) में शंकराचार्य ने एक ऐसा श्लोक उद्धृत किया है जो वायुपुराण में भी है और १।३।३० में ५ श्लोक स्मृति के कहे गये हैं जो वायुपुराण (९।५७-५९ एवं ६४-६५ ) के हैं । याज्ञवल्क्यस्मृति की टीका में विश्वरूप ने पुराणों पर दो मनोरंजक टिप्पणियाँ दी हैं । याज्ञ० ( ३।१७० ) में जहाँ विश्व - विकास के सांख्य-सिद्धान्त का वर्णन है, उसकी टीका में विश्वरूप का कथन है कि यह सिद्धान्त ( विश्व की सृष्टि एवं विलयन का सिद्धान्त ) पुराणों में पाया जाता है। याज्ञ० ( ३।१७५ ) में जहाँ यह कहा गया है कि पितृलोक का मार्ग अगस्त्य नक्षत्र एवं अजवीथि के मध्य में है, विश्वरूप की टिप्पणी है कि पुराणों में आकाश में सूर्य की कई वोथियाँ (मार्ग) हैं और अजवीथि अगस्त्य के अनन्तर है ।
उपर्युक्त निरूपण से यह व्यक्त होता है कि शबर से विश्वरूप तक के लेखकों ने पुराणों के विषयों के बारे में जो कुछ संकेत अथवा उल्लेख किये हैं उनसे यह प्रकट है कि ईसा की दूसरी शती से लेकर छठी या सातवीं शती तक के पुराणों में वे ही बातें पायी जाती हैं जो आज के पुराणों में देखने को मिलती हैं ।
आगे कुछ लिखने के पूर्व यहाँ युग-पुराण ( गार्गी संहिता का एक अंश) के बारे में कुछ चर्चा कर देना आवश्यक है, क्योंकि यह उन प्रारम्भिक एवं विद्यमान पुराणों में परिगणित है, जिन्हें 'पुराण' की संज्ञा एवं विधा प्राप्त है। कर्न महोदय ने बृहत्संहिता की अपनी भूमिका ( पृ० ३२ - ४० ) में इस विरल पुराण की चर्चा की और विद्वानों के समक्ष इसके बहुमूल्य ऐतिहासिक आँकड़ों को एक कटी- छँटी पाण्डुलिपि से निकाल कर रखा। आगे चल कर डा० जायसवाल महोदय ने कर्न की अपूर्ण पाण्डुलिपि तथा अन्य दो पाण्डुलिपियों से युगपुराण का संशोधित संस्करण उपस्थित किया जो अनुष्टुप् छन्द की ११५ अर्ध पंक्तियों में है । पुनः प्रो० लेवी की प्रति भी प्राप्त हुई, जिसका उपयोग डा० जायसवाल ने किया ( जे० बी० ओ० आर० एस्०, जिल्द १४) । और देखिए प्रो० के० एच्० ध्रुव का लेख (वही, जिल्द १६, पृ० १८-६६ ), प्रो० डी० के० मनकड़ का ग्रन्थ ( चारुतर प्रकाशन, वल्लभविद्यानगर,
tress मेरुपृष्ठम्, अथवा अन्वयव्यतिरेकाभ्यां विभक्तं केवलमेव सुखम् । तन्त्रवार्तिक, पु० २९९ (जै० १।३।३० ) । बहुत-से पुराणों में देव एवं उपदेव मेरु पर्वत के पृष्ठ भाग के निवासी कहे गये हैं। देखिए, मत्स्य (२।३७-३८), पद्म (५/८/७२-७३) ।
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