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________________ ३७८ धर्मशास्त्र का इतिहास वादों में प्रयुक्त होने वाले तर्क से की जा सकती है (अर्थात् वे वेद के स्तुतिद्योतक वाक्यों के सदृश प्रयोजन एवं प्रामाणिकता वाले हैं)। पृथिवी के विभागों का कथन प्रदेशों के अन्तर को समझने के उपयोग में आता है, जिसके द्वारा धर्माधर्म से उत्पन्न फलों को भोगा जाता है, जो कुछ अंश में अपने अनुभव पर आधारित होता है तथा कुछ अंश में वेद पर आधारित होता है। पुराणों में वंशों का जो क्रमबद्ध निरूपण होता है उससे ब्राह्मण एवं क्षत्रिय जातियों और उनके गोत्रों के ज्ञान की प्राप्ति होती है और वह वास्तविक अनुभूतिमूलक एवं स्मृतिमूलक होता है (अर्थात् वह वास्तविक अनुभूति एवं परम्परा से चले आये हुए ज्ञान पर आधारित होता है); देशों एवं काल के परिमाणों से सांसारिक आदान-प्रदान एवं ज्योतिःशास्त्र-सम्बन्धी व्यवहार में सहायता प्राप्त होती है और वे वास्तविक प्रत्यक्ष, गणित, परम्परा एवं अनुमान पर आधृत होते हैं। भावी कथन (भविष्य में घटने वाली बातों का कथन) वेद पर आधृत है, क्योंकि वह धर्माधर्म से उत्पन्न फलों के विभिन्न प्रकार के ज्ञानों की अनुभूति कराता है और अनादि काल से चले आये हुए युगवैशिष्ट्य-ज्ञान का परिचय देता है।"१२ इस कथन से यह स्पष्ट है कि कुमारिल को इतिहास एवं पुराणों का जो परिचय था उसमें गाथाएँ, पृथिवी स्थिति-ज्ञान (भूगोल), वंश-सूचियाँ, काल-परिमाण एवं भविष्य में घटने वाली घटनाओं का उल्लेख था। कुमारिल (जै० १॥३॥७) का एक अन्य कथन भी द्रष्टव्य है-'पुराणों में ऐसा वर्णित है कि कलियुग में शाक्य (गौतम बुद्ध) एवं अन्य उदित होंगे जो धर्म के विषय में विप्लव खड़ा करेंगे, उनके शब्दों को कौन सुनेगा ?'' इससे प्रकट है कि सातवीं शती के पूर्व पुराणों में कलियुग के स्वरूप का निरूपण पाया जाता था और कुमारिल को पुराण ज्ञात थे। वे बुद्ध को विष्णु का अवतार नहीं मानते थे, प्रत्युत वे उनकी भर्त्सना करते थे। क्षेमेन्द्र ने अपना दशावतार ग्रन्थ सन् १०६६ ई० में लिखा है, अपरार्क ने मत्स्यपुराण (अध्याय २८५) से एक लम्बा वाक्य-समूह उद्धत किया है, जिसके सात श्लोकों में विष्ण' के दस अवतारों (बद्ध भी सम्मिलित किये गये हैं) का उल्लेख है, जयदेव के गीतगोविन्द ने बुद्ध को अवतार माना है। इन बातों से स्पष्ट है कि १००० ई० के पूर्व बुद्ध विष्णु के एक अवतार के रूप में मान लिये गये थे, यद्यपि सातवीं शती में कुछ पुराणों ने उनकी निन्दा की थी। 'स्वर्ग' शब्द के अर्थ के विषय में विचार करते हुए कुमारिल ने पूछा है-'क्या यह नक्षत्रों का लोक है या मेरु पर्वत का पृष्ठ भाग है, जैसा कि इतिहास एवं पुराणों में आया है, या यह मात्र सुख की एक स्थिति का द्योतक है ?" इससे प्रकट है कि कुमारिल के काल में पुराणों में मेरु का पृष्ठ भाग स्वर्ग के रूप में निरूपित था। १२. तेन सर्वस्मृतीनां प्रयोजनवती प्रामाण्यसिद्धिः। तत्र यावद्धर्ममोक्षसम्बन्धि तद्वदप्रभवम् । यत्त्वर्थसुखविवयं तल्लोकव्यवहारपूर्वकमिति विवेक्तव्यम्। एषैवेतिहासपुराणयोरप्युपदेशवाक्यानां गतिः। उपाख्यानानि त्वर्यवादेषु व्याख्यातानि। यत्तु पृथिवीविभागकथनं तद्धर्माधर्मसाधनफलोपभोगप्रदेशविवेकाय। किंचिद्दर्शनपूर्वकं किंचिद्वेदमूलम् । वंशानुक्रमणमपि ब्राह्मणक्षत्रियजातिगोत्रज्ञानार्य दर्शनस्मरणमूलम् । देशकालपरिमाणमपि लोकज्योतिःशास्त्रव्यवहारसिद्धपर्थ दर्शनगणितसंप्रदायानुमानपूर्वकम्। भाविकथनमपि त्वनादिकालप्रवृत्तयुगस्वभावधर्माधर्मानुष्ठानफलविपाकवैचित्र्यज्ञानद्वारेण वेदमूलम् । तन्त्रवातिक (जै० ११३।१: धर्मस्य शब्दमूलत्वादशब्दमनपेक्षं स्यात्)। १३. स्मृयन्ते च पुराणेषु धर्मविप्लुतिहेतवः । कलौ शाक्यादयस्तेषां को वाक्यं श्रोतुमहति ॥ तन्त्रवार्तिक पृ० २०३, जै० ११३७। कुछ पुराणों, यथा-वराह (११३।२७-२८), ब्रह्म (१२२१६८-७०), पद्म (६।२१।१३१५) ने विष्णु के दस अवतारों (बुद्ध को सम्मिलित करते हुए) का वर्णन किया है। किन्तु इन पुराणों में पश्चात्कालीन क्षेपक आ गये हैं और इनकी तिथियों के विषय में निश्चित बात करना सम्भव नहीं है। १४. तथा स्वर्गशब्देनापि नक्षत्रदेशो वा वैदिकप्रवादपौराणिकयाज्ञिकदर्शनेनोच्यते... यदि वेतिहासपुरा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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