________________
३७६
धर्मशाल का इतिहास के कृष्ण पक्ष में करना चाहिए। मनुस्मृति (३।२३२) ने जो यह कहा है कि श्राद्ध कृत्य में निमन्त्रित ब्राह्मणों को वेदों, धर्मशास्त्रों, गाथाओं, इतिहासों, पुराणों एवं खिल मन्त्रों का पाठ करना चाहिए, उससे स्पष्ट होता है कि उसमें जिन पुराणों की ओर संकेत किया गया है, वे आज के विद्यमान पुराण ही हैं। याज्ञवल्क्यस्मृति ने १४ विद्यास्थानों के नाम इस प्रकार गिनाये हैं : पुराण, न्याय (तर्कशास्त्र), मीमांसा (वैदिक व्याख्या के नियम), धर्मशास्त्र, ४ वेद एवं ६ वेदांग। लगता है, याज्ञ० के काल में ये विद्याएँ महत्ता के अनुसार क्रमबद्ध रखी गयी थीं। याज्ञ० ने उन ऋषियों की ओर संकेत किया है, जिन्होंने वेदों, पुराणों, विद्याओं (छह अंगों), उपनिषदों, श्लोकों (इतिहास ? ), सूत्र ग्रन्थों (यथा जैमिनि या न्याय के सदृश सूत्र-ग्रन्थों), माष्यों तथा जो कुछ साहित्य में विद्यमान हैं उनकी व्याख्या की है या जिनका प्रवर्तन किया है। एक अन्य स्थान पर याज्ञ ने व्यवस्था दी है कि गृहस्थ को स्नान के उपरान्त प्रातःकाल देवों एवं पितरों की पूजा करनी चाहिए और जप-यज्ञ करना चाहिए तथा अपनी योग्यता के अनुसार वेद, अथर्ववेद, इतिहास एवं पुराणों तथा दार्शनिक ग्रन्थों के कतिपय भागों का पाठ करना चाहिए। इससे पता चलता है कि इतिहास एवं पुराणों को एक-साथ रखा जाता था, वे दोनों वैदिक साहित्य से भिन्न थे तथा कम-से-कम ईसा की तीसरी शती में याज्ञ० के काल में धार्मिक बातों में पुनीतता एवं प्रामाणिकता ग्रहण कर चुके थे। महाभाष्य (पाणिनि ४।२।५९-६०) के एक वार्तिक ने आख्यान (यथा-यावक्रीलिक, यायातिक), आख्यायिका (यथा--कासवदत्तिक, सौमनोत्तरिक), इतिहास (ऐतिहासिक), पुराण (पौराणिक) में ठक् (इक) प्रत्यय लगा कर शब्द-निर्माण की व्यवस्था दी है। महाभारत की कतिपय उक्तियों में 'पुराण' एकवचन में प्रयुक्त है (आदि० ५।२, ३१।३-४, ५११६, ६५।५२; उद्योग० ७८।४७-४८; कर्ण० ३४।४४; शान्ति० २०८१५; अनुशासन० २२।१२, १०२।२१), और कहीं-कहीं बहुवचन में (आदि० १०९।२०; विराट० ५१।१०; स्त्रीपर्व १३।२; शान्ति० ३३९।१०६; स्वर्गारोहण ५।४६-४७ जहाँ पुराणों की संख्या १८ है)। वनपर्व (१९१।१५-१६) में मत्स्यपुराण एवं वायु० द्वारा उद्घोषित एक पुराण का उल्लेख हुआ है। ऐसा कहना असम्भव है कि पुराण-सम्बन्धी अनेक संकेत पश्चात्कालीन क्षेपक हैं, यद्यपि कुछेक हो सकते हैं। जब महाभारत में पुराण-गाथाएँ एकत्र की मयीं उसके पूर्व आज का कोई पुराण उतना विशद नहीं था, ऐसा कथन ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसे कथन के लिए कोई प्रमाण नहीं है।
बाण (७ वीं शती का पूर्वार्ध) जैसे प्रारम्भिक संस्कृत ग्रन्थकार, शबर (२००-४०० ई० से पश्चात्कालीन नहीं) जैसे माष्यकार, कुमारिल (७ वीं शती), शंकराचार्य (६५०-८०० ई० के किसी काल में) एवं विश्वरूप (८००-८५० ई०) इस विषय में कोई संदेह नहीं छोड़ते कि उनके समय में पुराणों के विषय आज के विषयों के सदृश ही थे। जैमिनि (१०।४।२३) के भाष्य में शबर ने यज्ञों के सम्बन्ध में देवता की परिभाषा करते हुए लिखा है कि एक मत के अनुसार वे अग्नि आदि हैं जिनका उल्लेख इतिहास एवं पुराणों में स्वर्ग में रहने वालों के रूप में हुआ है। कादम्बरी एवं हर्षचरित में बाण ने महाभारत एवं पुराणों का बहुधा उल्लेख किया है जिनमें कादम्बरी
९. पुराणन्यायमीमांसाधर्मशास्त्राङ्गमिश्रिताः। वेदाः स्थानानि विद्यानां धर्मस्य चतुर्दश ॥ यान० ११३; यतो वेदाः पुराणानि विद्योपनिषदस्तथा । श्लोकाः सूत्राणि भाष्याणि यच्च किंचन वाजमयम् ॥ याज० ३३१८९; वेवाथपुराणानि सेतिहासानि शक्तितः। जपयज्ञप्रसिड्ययं विद्यां चाध्यात्मिकी जपेत् ॥ मात० (१।१०१)। मिलाइए, विष्णुपुराण ५११३७-३८ एवं यास० १३। कभी-कभी याम० की सूची में चार उपवेवों, प्रथा आयुग, धनुर्वेद, गान्धर्ववेद एवं अर्थशास्त्र को मिला लिया जाता है और संख्या १४ से १८ हो जाती है। देखिए, विष्णुपुराण (३।६।२५-२६, जहाँ १४ विद्या० एवं उपवेदों का उल्लेख है)।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org