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धर्मशास्त्र का इतिहास पुराणम्' (एक सामासिक शब्द के रूप में) का उल्लेख किया है और उसमें ऐसा आया है कि पारिप्लव के ९वें दिन होता पुरोहित अन्य बातों के साथ इस प्रकार निर्देश देता है--'पुराण वेद है; यह वही है; ऐसा कहते हुए उसे कोई पुराण कहना चाहिए (१३।४।३।१३)। शांखायन श्रौतसूत्र (१६।२।२७) एवं आश्वलायन श्रौतसूत्र (१०७) के अनुसार पारिप्लव के दो दिनों में इतिहासवेद एवं पुराणवेद का पाठ होना चाहिए। किन्तु ये दोनों सूत्र (यद्यपि ये ऋ० से सम्बद्ध हैं) पाठ करने के दिन के विषय में भिन्न मत देते हैं। यह कहना कठिन है कि अथर्ववेद, शतपथब्राह्मण एवं उपनिषद् पुराण नामक ग्रन्थों से परिचित थे या नहीं, अथवा वे केवल किसी एक पुराण नामक ग्रन्थ से परिचित थे। किन्तु तै० आरण्यक (२।१०) ने इतिहास एवं पुराण को बहुवचन में लिखा है, जिससे प्रकट होता है कि पश्चात्कालीन वैदिक काल में तीन या अधिक पुराण नामक ग्रन्थ थे जिन्हें अश्वमेघ जैसे पवित्र यज्ञ करने वाले पढ़ते थे। ऐसा सोचना ठीक भी हो सकता है कि एकवचन में प्रयुक्त 'पुराणम्' शब्द किसी विशिष्ट प्रकार के ग्रन्थ का परिचायक था। उपनिषदों में 'इतिहास-पुराण' को पाँचवाँ वेद कहा गया है और शत० प्रा० में 'इतिहासपुराणम्' सामासिक शब्द है, इससे ऐसा अनुमान निकाला जा सकता है कि 'इतिहास' एवं 'पुराण' कुछ बातों एवं विषयों में एक-दूसरे के समान थे। आपस्तम्बधर्मसूत्र (१।६।१९।१३) ने एक पुराण (एकवचन में) के दो पद्य उद्धृत किये हैं (प्रत्येक दो स्थानों पर), जिनमें एक भविष्यत् पुराण का कहा गया है और दूसरे स्थान पर एक पुराण का संक्षेप उपस्थित किया गया है, जिसमें ऐसा आया है कि जब कोई व्यक्ति किसी को हानि पहुंचाने के लिए आक्रमण करता है तो यदि वह व्यक्ति जिस पर आक्रमण किया गया है, आक्रामक को मार डालता है तो ऐसा करने से पाप नहीं लगता। इससे स्पष्ट होता है कि आपस्तम्ब के समक्ष भविष्यत् नामक एक पुराण था और ऐसा या ऐसे पुराण भी थे जिसमें या जिनमें भोजन-सम्बन्धी, गृहस्थ एवं नैष्ठिक ब्रह्मचारी जैसे आश्रमों के नियम भी थे और उनमें आततायी को मृत्युपर्यन्त रोकने एवं प्रलय तथा पुनः सृष्टि के विषय में वर्णन मिलता था। ये बातें स्मृतियों एवं पुराणों के अन्तर्गत आ जाती हैं। 'पुराण' शब्द का अर्थ है 'प्राचीन', अतः 'भविष्यत् पुराण' शब्द विरोधसूचक शब्द है। आपस्तंब के बहुत पहले से 'पुराण' नामक शब्द ऐसे ग्रन्थ के लिए प्रयुक्त होता था जिसमें प्राचीन गाथाएँ आदि रहती थीं; इस प्रकार के कतिपय ग्रन्थ प्रणीत रहे होंगे, और सम्भवतः उनमें समकालीन घटनाएँ भी संगृहीत होती रहीं और ऐसी घटनाएँ भविष्यवाणी के रूप में रख दी गयीं। इसी से 'भविष्यत्पुराण' नाम पड़ा।'
३. मध्वाहुतयो ह वा एता देवानां यदनुशासनानि विद्या वाकोवाक्यमितिहासपुराणं गाथा नाराशंसीरित्यहरहः स्वाध्यायमधीते। शतपथ १।५।६।८; अथाष्टमेऽहन। मत्स्याश्च मत्स्यहनश्चोपसमेता भवन्ति । तानुपदिशतीतिहासो वेदः सोयमिति कंचिदितिहासमाचक्षीत । अथ नवमेऽहन् ।. . . तानुपदिशति पुराणं वेदः सोयमिति किचित्पुराणमाचक्षीत। श० ब्रा० १३।४।३।१२-१३। टीका के अनुसार इतिहास 'आरम्भ में कुछ नहीं था, केवल जल था', और पुराण का अर्थ है पुरूरवा एवं उर्वशी जैसे कथानक । मिलाइए गोपथब्राह्मण (२०२१)।
४. यह द्रष्टव्य है कि वराहपुराण (१७७)।३४) ने स्पष्ट रूप से भविष्यत्पुराण का उल्लेख किया है। संकेत मिला है कि कृष्ण के पुत्र साम्ब ने भविष्यत् नामक पुराण का नवीकरण किया और चार स्थानों में सूर्य-प्रतिमाएँ स्थापित की, यथा--(१) यमुना के दक्षिण में,(२) यमुना एवं मुल्तान के मध्य में, जिसे कालप्रिय कहा गया, (३) मूलस्थान (आज के मुल्तान) में एवं (४) मथुरा में। देखिए भविष्य० (११७२।४-७) जहाँ सूर्य-प्रतिमा के तीन केन्द्रों का उल्लेख है। मत्स्य० (५३१६२) ने भी भविष्यत् का उल्लेख किया है।
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