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· चिकित्सकीय शकुन...
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एवं रामशलाका प्रसिद्ध हैं। देखिए इस विषय में श्री जी० ए० ग्रियर्सन (इण्डियन ऐण्टीक्वेरी, जिल्द २२, पृ० २०४) एवं एच० जैकोबी (फेस्टगेव, पृ० ४४९ - ४५५) ।
यह द्रष्टव्य है कि चरकसंहिता जैसे वैज्ञानिक ग्रन्थ भी वैद्य को निर्देश देते हैं कि वह रोगी की एवं समाचार देने वाले की दशा पर ध्यान दे, अन्य क्रियाओं का अवलोकन करे और अशुभ शकुनों पर ध्यान दे। यह सब इन्द्रियस्थान (अध्याय १२ ) में वर्णित है। दो-एक बातें यहाँ दी जा रही हैं— 'वह रोगी केवल एक मास तक जीवित रहेगा, जिसके सिर पर गोबर के सूखे चूर्ण के समान चूर्ण या भूसी उभरती है; वह रोगी एक पक्ष से अधिक काल तक जीवित नहीं रह सकता जिसकी छाती स्नान करते या चन्दन लगाते समय सूख जाय जब कि अन्य शरीरांग अभी गीले ही रहें । वे दूत ( समाचारवाहक), जो रोगी के यहाँ से वैद्य के पास उस समय पहुँचते हैं जब कि वह offer में आहुतियां डालता रहता है या पितरों को पिण्डदान करता रहता है, रोगी को मार डालेंगे (अर्थात् इससे रोगी की आसन्न मृत्यु प्रकट होती है ) । दयनीय दशा वाली, डरी हुई, आतुरता से चलती हुई, दुःखी, गन्दी एवं व्यमिचारिणी नारी; तीन व्यक्ति ( साथ आने वाले), टेढ़े अंग वाले (विकलांग), नपुंसक - ऐसे व्यक्ति उन लोगों के समाचारवाहक होते हैं जो मरणासन्न होते हैं। समाचारवाहक द्वारा बुलाये जाने पर जब वैद्य उसके द्वारा रोमी की दशा का वर्णन सुनता हुआ कोई अशुभ लक्षण देखता है, या किसी दुखी व्यक्ति, शव या मृत व्यक्ति के लिए किये जाने वाले अलंकरण को देखता है तो उसे रोगी के पास नहीं जाना चाहिए। दही; पूर्ण अनाज, ब्राह्मण, बैल, राजा, रत्न, जलपूर्ण पात्र, श्वेत अश्व आदि शुभ लक्षण कहे गये हैं । किन्तु वैद्य को चाहिए कि वह अपने द्वारा देखे
अशुभ शकुनों की घोषणा न करे, क्योंकि ऐसा करने से रोगी को धक्का लग सकता है और उन लोगों को भी कष्ट मिल सकता है जो उस घोषणा को सुनते हैं ।'
शान्ति सम्बन्धी पठनीय मन्त्रों तथा विषयों की जानकारी के लिए ऋग्वेद के शान्ति सूक्त एक स्थान पर निम्न प्रकार से रखे जा सकते हैं-
(१) आ नो भद्राः (ऋ० १।८९।१ - १० ) । (२) स्वस्ति न इन्द्रो (ऋ० १।८९।६-१०)। (३) शं न इन्द्राग्नी ( ऋ० ७।३५।१-११) । (४) यत इन्द्र मयामहे ( ऋ० ८।६१।१३ - १८ ) । (५) भद्रं नो अपि वातय मनः (ऋ० १० २०११) । ( ६ ) आशुः शिशानो (ऋ० १०।१०३।१-१३) । (७) मुञ्चामि त्वा ( ऋ० १०।१६१।१-५) । ( ८ ) त्यमु शु ( ऋ० १०।१८५११-३ ) । (९) महि त्रीणाम् (ऋ० १०।१८५।१-३) । (१०) रात्री व्यख्यत् (ऋ० १०।१२७११-८) ।
उपर्युक्त सूक्तों में अधिकांश पूर्ण रूप से या खण्डांश में अथर्ववेद, तैत्तिरीय सं० एवं अन्य वैदिक संहिताओं में पाये जाते हैं ।
कुछ ऐसे मन्त्र भी हैं जिन्हें 'रक्षोघ्न' (सभी दुष्ट आत्माओं का हनन करने वाले) कहा जाता है, यथाकृणुश्व पाजः (ऋ० ४१४११-१५), 'रक्षोहणम्' (ऋ० १०१८७११-२५), इन्द्रासोमा तपतम् (ऋ० ७ १०४/१-२५), 'अग्ने हंसि न्यत्रिणम्' (ऋ०१०१११८ १-९), 'ब्रह्मणाग्निः' (ऋ० १० १६२।१-६) । इनमें भी कुछ पूर्ण रूप से या खंड अंश में तै० सं०, अथर्ववेद एवं अन्य वैदिक ग्रन्थों में पाये जाते हैं ।
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