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उपश्रुति एवं सुस्तक-नाम का प्रयोग हैं। उपायुति के विषय में बसन्तराज का कथन अवलोकनीय है। 'प्रदोष या प्रातःकाल जब कि लोग बहुधा मौन रहते हैं, उस समय यदि कोई अक्ति कोई कार्य को को सन्नद्ध रहता है तो उसे उपश्रुतियों (दिव्य वाणी या आकाशवासी) के सभी स्थानों पर विचार करना चाहिए । बिना किसी संकेत पर एक बचा जो कुछ कह उठता है वह युगान्त तक मृषा नहीं हो सकता। उपश्रुति के अतिरिक्त मनुष्यों के लिए कोई अन्य ऐसा सुबोष एवं सत्य शकुन नहीं हो सकता।' मानसोल्लास (२।१३, श्लोक ९२०-९२६, पृ०११०-११३) एवं वसन्तराज़ (६, पृ०७८-८०, श्लोक ५-१२) ने 'उपश्रुजि' नामक भविष्यवाणी की जानकारी के एक विचित्र दंड का हालेख किया है। जब सभी लोग खोये रहते हैं और ग्रामार्स पर कोई काइत नहीं रहता, तीन विवाहित गायों को किसी कुमारी कन्या के साथ गोश की पूजा (गन्ध, पुष्प आदि से) कस्मी माहिए; इसके उपरान्त चीन का अविवादन कर कुडव-पात्र में अन्न को अक्षत के साथ मरना चाहिए और उस पर सात बार मरत-पाठ करना चाहिए: तब उस अन्नराशि पर माडू के घास वाले भाम को रखकर उस पर गणेश प्रतिमा रखनी चाहिए। उन्हें चाहिए कि वे उस कुडव को गणेश-प्रतिमा के साथ किसी रजक (धोबी) के पर ले जायें। घर के सम्मुख अपने मन की बात (संकल्प) को मौन रूप से ही कह कर खेत अक्षतों को फेंक देना चाहिए। इसके उपरान्त उन्हें ध्यानपूर्वक सुनना चाहिए। जब वे घर के भीतर से किसी पुरुष, स्त्री का बच्चे या किसी भी व्यक्ति द्वारा सारसंख्लप (माले मन से कहा नया कुछ भी ) सुनें, चाहे वह शुभ हो या अनुभ, तो उन्हें सुने गये वचन के अर्थ पर विचार करना चाहिए। इस प्रकार प्राप्त निष्कर्ष भविष्य के संकल्प के विषय में असत्य नहीं ठहर सकता। इसी प्रकार की विधि चाण्डाल के घर जाकर भी अपनायी जा सकती है।"
२५. प्रदोषकाले यदि वा प्रभाते लोके क्वचित् किञ्चन भाषमाणे। उपश्रुतिः कार्यसमुद्यतेन सार्वत्रिकी वा परिभावनीया॥ यद्बालकेनोक्तमवोदितेन तत्स्यावसत्यं न युगान्तरेपि। उपश्रुते न्यविहास्ति किञ्चित्सत्यं सुबोध शकुनं जनानाम् ॥ वसन्तराज (६,१०८०-८१) 'उपश्रुति' ऋ० (११०॥३) में भी आया है और उसका अर्थ केवल यह है 'सुनने के लिए पास में आना।' और देखिए ऋ० (८1८1५ एवं ८१३४।११)। अर्चयित्वा गणाधीश। कुमार्याः सहिता नार्यतिस्त्रः सुप्ते जनेऽखिले। अक्षतः पूरयेयुस्ता यत्किञ्चित् कुडवादिकम्। चण्डिकायै नमः कृत्वा सप्तकृत्वोऽभिमन्त्रितम् ॥ संमार्जनीकृलावेष्टे स्थापयेयुर्गणाधिपम्। व्रजेयुस्तं समादाय स्जकस्य निकेतनम्॥ तद्गहस्य पुरोभागे निक्षिपेयुः सितालतान् । मनोगतं समुद्दिश्य शृणुयुः सुसमाहिताः॥ श्रूयते वचनं किञ्चिद् रजकालयम ध्यगम् । नार्या नरेष बालेन प्रोक्तमन्येन केनचित्॥ स्वरसंलापनोद्भूतं शुभं वा यदि वाशुभम्। शृण्वन्तीभिः फलंज्ञेयं ताक्वार्थविचारतः॥ चण्डालमिलबेऽप्येवं श्रवणे बोषने क्रमः। यद् बूयुर्वचनं तत्र ततया न तदन्यथा॥ मानसोल्लास (२।१३, श्लोक ९२०-९२६) । वसन्त राज ने अधिकांश में ये ही शब्द कहे हैं। किसने किससे उधार लिया है, कहना कठिन है। सम्भवतः बोनों ने किसी अन्य से उद्धरण लिया है, अर्थात् सम्भवतः दोनों का मूल एक ही है। 'कुडव' अन की एक तौल है और वह 'प्रस्थ' की चौथाई होती है। हेमाद्रि (वत, भाग १, पृ० ५७) एवं पराशरमाषवीय (२।१, पृ० १४१) द्वारा उद्धृत भविष्यपुराण के अनुसार २ पल प्रसृति, २ प्रसूति कुडव. ४ कुख्य प्रस्थ, ४प्रस्थ आक्षक, ४ आठक द्रोण, १६ द्रोण खारी। शबर (जैमिनि १०॥३॥४५) ने कुडव, आढक, द्रोण एवं खारी का उल्लेख किया है। पाणिनि ने आठक एवं खारी का उल्लेख किया है (५।११५३ एवं ५।४।१०१)। प्राचीन स्मृतियों के अनुसार रजक (धोबी) सात अन्त्यजों में परिगणित है--रजकश्चर्मकारश्च नटो बुरुड एव च। कैवर्तमेवभिल्लाश्च सप्तैते चान्त्यजाः स्मृताः॥ अत्रि १९९, अंगिरा, यम (३३)। अभी कुछ वर्ष पूर्व
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