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धर्मशास्त्र का इतिहास
तत्त्व है तो राजनीति-शास्त्र एवं शासन-शास्त्र से क्या लाभ, जिनके ज्ञान से राजा उद्योगपूर्वक इस संसार की रक्षा करते हैं ? विद्वानों ने घोषित किया है कि देब (भाग्य) केवल वह कर्म है जो पूर्वजन्मों में संगृहीत होता है, पूर्वजन्म के कर्म मनुष्य के उद्योग से ही प्राप्त होते हैं, तब कोई कैसे कह सकता है कि दैव मनुष्य के उद्योग पर निर्भर नहीं रहता?
वसन्तराज के विषय २० वर्गों एवं १५२५ श्लोकों में विभाजित हैं, जिनका संक्षिप्त वर्णन यों है-(१) शास्त्रप्रतिष्ठा (३१ श्लोक); (२) शास्त्रसंग्रह (१३ श्लोक); (३) अभ्यर्चन (३१ श्लोक); (४) मिश्रक (७२ श्लोक); (५) शुभाशुभ (१६ श्लोक); (६) नरेंगित (५० श्लोक); (७) श्यामारुत (४०० श्लोक); (८) पक्षिविचार (५७ श्लोक); (९) चाश (५ श्लोक); (१०) खंजन (२७ श्लोक); (११) करापिका (११ श्लोक); (१२) काकरुत (१८१ श्लोक); (१३) पिंगलिकारुत (२०० श्लोक); (१४) चतुष्पद (५० श्लोक); (१५) षट्पद, बहुपद एवं सर्प (१३ श्लोक); (१६) पिपीलिका (१५ श्लोक); (१७) पल्ली-विचार (३२ श्लोक); (१८) श्व-चेष्टित (२२२ श्लोक); (१९) शिवारुत (९० श्लोक); (२०) शास्त्रप्रभाव (२४ श्लोक)।
वसन्तराज के ग्रन्थ की एक विशेषता यह है कि इसका आधे से अधिक भाग (७८१ श्लोक) तीन पक्षियों के स्वरों से सम्बन्धित है, यथा श्यामा पर ४०० श्लोक, कौआ पर १८७ श्लोक एवं पिंगलिका (उल्लू के समान पक्षी) पर २०० श्लोक। ३१२ श्लोक कुत्तों के भूकने एवं गति पर तथा उनके शोरगुल पर २२२ श्लोक हैं और इसी प्रकार शृगालिनी की बोली पर ९० श्लोक हैं। यह द्रष्टव्य है कि शाक्त लोगों का ऐसा विश्वास है कि शृगालिनी काली की दूती है और शुभ है; इसके स्वर को प्रातःकाल सुनने पर व्यक्ति को नमस्कार करना चाहिए और ऐसा करने पर सफलता मिलती है। उपर्युक्त बातें यह स्पष्ट करती हैं कि वसन्तराज ने शकुन के अर्थ का विस्तार कर डाला है और उसके अन्तर्गत मनुष्यों एवं पशुओं के कर्मों पर आधारित निमित्तों को सम्मिलित कर लिया है।
वसन्तराज ने अन्त में स्वयं कहा है कि वह शकुन है, जो इस लोक में स्मरित होता है, सुना जाता है, जिसका स्पर्श किया जाता है, जिसे देखा जाता है या जो स्वप्नों में उद्घोषित होता है, क्योंकि इन सभी से फल प्राप्त होते हैं। उसका कथन है कि शकुन उतना ही प्रामाणिक है जितने कि वेद, स्मतियाँ एवं पूराण हैं, क्योंकि यह सत्य ज्ञान देने में कभी असफल नहीं होता है। उसके कुछ मनोहारी वक्तव्य संक्षेप में यहाँ कहे जा सकते हैंयदि उल्ल रात्रि में घर के ऊपरी भाग पर बैठ कर बोलता है तो दुःख का संकेत मिलता है और गह-स्वामी के पुत्र की मृत्यु हो जाती है (८।४०)। ऐसा आज भी विश्वास किया जाता है। निमित्तसूचक स्वरों में कौए की बोली प्रधान है। कुत्तों का मूंकना सभी शकुनों का सार है। बृहद्योगयात्रा में ऐसा आया है कि कुछ पशु एवं पक्षी कुछ ऋतुओं में अग्रसूचना के लिए व्यर्थ हैं, यथा-रोहित (लाल) हिरन, अश्व, बकरी, गदहा, ऊँट, खरगोश शिशिर ऋतु में निष्फल होते हैं। कौआ एवं कोकिल वसन्त ऋतु में निष्फल होते हैं; सूअर, कुत्ता, भेड़िया आदि पर भाद्रपद में विश्वास नहीं करना चाहिए; शरद् में कमल (या शंख), साँड़ एवं क्रौंच जैसे पक्षी निष्फल सिद्ध होते हैं; श्रावण में हाथी एवं चातक निष्फल होते हैं; हेमन्त में व्याघ्र, भालू, बन्दर, चीता, भैंस तथा वे जीव जो बिलों में रहते हैं (यथा सर्प) तथा मानवीय बच्चों के अतिरिक्त सभी शिशु निष्फल होते हैं। यही बात वसन्तराज ने भी ज्योंकी-त्यों कही है (४।४७-४८)। वसन्तराज ने वराहमिहिर से बहुत उधार लिया है।
वसन्तराज (३।३-४) का कथन है कि शकुनों के विषय में पाँच सर्वोत्तम हैं, यथा-पोदकी पक्षी, कुत्ता, कौआ, पिंगला पक्षी एवं शृगालिनी। सरस्वती, यक्ष (कुबेर), चण्डी एवं पार्वती की सखी क्रम से पोदकी, कुत्ते (तथा चील), पिंगला एवं शृंगालिन के देवता एवं देवी हैं। उसने आगे कहा है कि सभी पशुओं एवं पक्षिओं के देवता होते हैं, अतः शकुन-वक्ता को चाहिए कि वह उन्हें न मारे, क्योंकि उन्हें मारने पर उनके देवता रुष्ट हो जाते
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