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________________ ३६७ शकुन-विचार; वसन्तराज० ग्रन्थ का परिचय २।४३।२ एवं ३) एवं 'शकुन्ति' (ऋ० २।४२॥३, २।४३।१) का पर्यायवाची है। ऋ० (१०।१६।६) 'यत् ते कृष्णः शकुन आतुतोद) में कौआ को काला पक्षी कहा गया है। हमने बहुत पहले देख लिया है कि कपोत जैसे पक्षियों को ऋग्वेद में अभाग्य एवं भय का सूचक माना गया है। इसी से 'शकुन' शब्द कालान्तर में पक्षियों की बोली, गति आदि से समन्वित हो भय एवं विपत्तियों का सूचक बन गया। शकुनों पर विशद साहित्य मिलता है। कुछ ग्रन्थ ये हैं मत्स्यपुराण (अध्याय २३७, २४१, २४३), अग्नि० (अध्याय २३०-२३२), विष्णुधर्मोत्तर० (२।१६३१६४), पय० (४।१००।६५-१२६), बृ० सं० (अ० ८५-९५), बृ० यो० (अ० २३-२७), यो० या० (अ० १४), भद्रबाहु का 'निमित्त', वसन्तराजशाकुन, सोमेश्वर चालुक्य (११२६-११३६ ई० सन्) का मानसोल्लास (२।१३), अद्भुतसागर, राजनीतिप्रकाश (पृ० ३४५-३४७)। इनमें वसन्तराज-शाकुन अत्यन्त विशद है और इसका उद्धरण अद्भुतसागर आदि ग्रन्थों ने लिया है। इस ग्रन्थ का परिचय देना आवश्यक है। यह बीस वर्गों में विभाजित है और इसमें विभिन्न छन्दों में १५२५ श्लोक हैं। इसमें आया है"--मैं उन शकुनों को उद्घाटित करूँगा, जो इस विश्व में जीवों के वर्गों द्वारा अभिव्यक्त हैं. यथा-दो पदों वाले (मनष्य एवं पक्षी). चार पद वाले (हाथी. अश्व आदि), षट् पदों वाले (मधुमक्खियाँ), अष्ट पदों वाले (अनुश्रुतियों अर्थात् कल्पित कथाओं वाले पशु, यथा शरम), ऐसे जीव जिनके बहुत-से पद हों (यथा--बिच्छू), बिना पद वाले (यथा-सर्प आदि) जीवों द्वारा। वह शकुन हैं, जिसके द्वारा शुभाशुभ फलों का निश्चित ज्ञान प्राप्त किया जाता है, यथा-गति (बायीं या दायीं) ओर आदि), (पक्षियों एवं पशुओं के) स्वर, उनके आलोकन एवं भाव-चेष्टा। जो व्यक्ति शकुनशास्त्र रंगत होता है वह यह जान कर कि उसको किसी पदार्थ से कठिनाइयाँ उत्पन्न होंगी या ऐसा नहीं होगा, उसे त्याग देता है या उसे कार्यान्वित करता है। इसके केवल अध्ययन मात्र से ही पाठक को आनन्दमय ज्ञान प्राप्त हो जाता है और फल मिल जाते हैं। इस ग्रन्थ ने वराहमिहिर (बृ० सं० ८५।५) का मत घोषित किया है कि शकुन यात्रा करते समय या घर में रहने पर, किसी भी अवस्था में, पूर्वजन्म के कर्मों के फल घोषित करते हैं। यह ग्रन्थ इस विरोध का उत्तर देता है कि यदि कोई व्यक्ति पूर्वजन्म के कर्मों के फलों से छुटकारा नहीं पा सकता तो इस शास्त्र का महत्त्व ही क्या है। इसका कथन है कि पूर्वजन्मों के कर्म किन्हीं कालों एवं स्थानों में फल देते हैं और मनुष्य पूर्वजन्मों के कर्मों के फलों से छुटकारा उसी प्रकार पा सकता है जिस प्रकार वह सर्पो, अग्नि, काँटों आदि भयावह पदार्थों से पाता है। यदि भाग्य (नियति) ही निश्चयात्मक २३. प्रकीर्तिता विशतिरेव यस्मिन्वर्गा महाशाकुनसारभूताः। सहस्रमेकं त्विह वृत्तसंख्या तथा सपादानि शतानि पञ्च ॥ वसन्तराज (११।१२)। २४. द्विपदचतुष्पदषट्पदमष्टापदमनेकपदमपदम्। यज्जन्तुवृन्दमस्मिन् वक्ष्यामस्तस्य शकुनानि ॥ शुभाशुभज्ञानविनिर्णयाय हेतु णां यः शकुनः स उक्तः। गतिस्वरालोकनभावचेष्टाः संकीर्तयामो द्विपदाविकानाम् ॥ सरपायमेतन्निरपायमेतत्प्रयोजन भावि ममेति बुझ्या। असंशयं शाकुनशास्त्रविज्ञो जहाति चोपक्रमते मनुष्यः ॥.... अवेक्षितस्मिन्न खलूपदेष्टा न चात्र कार्य गणितेन किंचित् । उत्पद्यते मुष्य हि ज्ञानमात्राज्ज्ञानं मनोहारि फलानुसारि॥ पूर्वजन्मकृतकर्मणः फलं पाकमेति नियमेन देहिनः । तत्प्रकाशयति देवनोदितः प्रस्थितस्य शकुनः स्थितस्य च ॥.... देवमेव यदि कारणं भवेनीतिशास्त्रमुपयुज्यते कथम् । यद्बलेन सुषियो महोद्यमाः पालयन्ति जगती जनाधिपाः॥ पूर्वजन्मजनितं पुराविदः कर्म देवमिति संप्रचक्षते । उद्यमेन तदुपाजितं तदा दैवमुधमनशं न तत्कथम् ॥ वसन्तराज ११६-८, १४, २१-२२। अद्भुतसागर ने (पृ० ५६९) शुभाशभ० एवं अन्य श्लोक उद्धृत किये हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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